भारत में बहुमत हासिल करना बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी में संघर्ष और टकराव की निर्मम प्रक्रिया से होकर गुजरता है। आज़ादी के कुछ ही वर्षों में सामाजिक-धार्मिक बहुसंख्या को राजनीतिक बहुमत में बदलने की कोशिशें शुरू हो गईं।
भाजपा ने धार्मिक बहुमत के ध्रुवीकरण पर जोर दिया तो पिछड़ावादी-दलितवादी दलों ने सामाजिक बहुमत के ध्रुवीकरण को सफलता की कुंजी समझा। बावजूद इस ध्रुवीकरण के शुरुआती परिणामों के, कांग्रेस लंबे समय तक एक ऐसे दल के रूप में केन्द्रीय सत्ता बनी रही जिसे सभी धार्मिक-सामाजिक समुदायों का विश्वास प्राप्त रहा।
पर धीरे-धीरे जनसांख्यकीय बहुमत को राजनीतिक बहुमत में बदलने की प्रक्रिया गति पकड़ने लगी। असंख्य जातियों एवं तमाम धर्मों-पंथों में बंटे भारतीय समाज का यह रूख़ अख्तियार करना ऐतिहासिक कारणों से सुगम हो गया। फलतः जातीय व धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ता गया। 90 के दशक में इस ध्रुवीकरण को मंडल बनाम कमंडल के ध्रुवों के रुप में पहचाना गया था।
कांशीराम ने सवर्ण जातियों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए बहुजन समाज के रुप में जिस विशाल समुदाय की परिकल्पना की वह भी इसी सामाजिक बहुमत को राजनीतिक बहुमत में बदलने की कोशिश थी। पर लोकतंत्र ने जातियों के राजनीतिकरण को इतना तीव्र बना दिया कि 85% सामाजिक व धार्मिक आबादी कभी एक साथ इकट्ठी न हो पाई। फिर भी चुनावी सफलताएँ मिलीं।
हर जाति की अपनी भिन्न पहचान के प्रति ललक तथा वर्चस्व और प्रतिरोध की भावना का प्रकटीकरण राजनीति में जमता गया। सर्वणों के वर्चस्व के प्रतिरोध और सामाजिक परिवर्तन के जोश के बावजूद बहुजनी एकता दृढ़ न रह पाई। पिछड़ों व दलितों की अपनी-अपनी गोलबंदी हुई और इस गोलबंदी में सवर्ण वोटों की जरूरत भी पड़ने लगी। ऐसे में सवर्ण प्रतिरोध, सवर्ण तुष्टीकरण में बदल गया। किसी ने ठाकुरों को बहुमत के लिए आवश्यक पाया तो किसी ने ब्राह्मणों को। दक्षिणी राज्यों की तुलना में उत्तर भारत में सवर्ण आबादी अधिक होने से सवर्ण मतों की जरूरत महत्त्वपूर्ण थी। उधर भाजपा ने इसी बहुजनी मंत्र को अपने ढंग से साधने में कामयाबी हासिल करनी शुरू की। उसे मुस्लिमों को छोड़कर हिन्दू एकता के बल पर सत्ता पाना सहज लगा। पिछले एक दशक में उसने सवर्णों को अपने वफादार सामाजिक आधार के रूप में तो बनाये रखा ही साथ ही दलितों-पिछड़ों के बीच भी अपना आधार बढ़ाया। उसने पुरानी कांग्रेस की तरह सभी जातियों में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई। सवर्ण-अवर्ण सबकी पार्टी बन गयी। केंद्र में भाजपा की लगातार दो विजयों ने विपक्षी दलों को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया। उसको डिगाने की कोई युक्ति किसी को नहीं समझ में आ रही थी। यूपी की दोनों जीतें भी विपक्ष को सकते में डालने के लिए काफी थीं। कांग्रेस चिंतित थी कि यदि व्यापक हिन्दू समाज में भाजपा वैसी ही स्वीकार्य बनी रहती है जैसी कि कभी स्वयं वह थी तो वह भाजपा को केवल उसकी आर्थिक असफलताओं, क्रोनी कैपिटलिज्म और प्रशासनिक केन्द्रीयकरण तथा अल्पसंख्यकों के प्रति कठोरताओं के आधार पर निकट भविष्य में अपदस्थ नहीं कर पायेगी। उसे एक सामाजिक आधार की जरूरत थी। इसी तरह की भावना पिछड़ावर्ग आधारित दलों में महसूस की गई। उनके बीच सवर्ण मतों का जो मोह पैदा हुआ था वह भी खत्म हो गया। यह देखकर कि सवर्ण किसी भी कीमत पर अब भाजपा के साथ ही रहेंगे, पिछड़ावर्ग आधारित पार्टियां ध्रुवीकरण के अपने पुराने सिद्धांत पर आने को मजबूर हुईं। उन्हें यह लगने लगा कि भाजपा सवर्ण वर्चस्व को स्थापित कर रही है। उसके वर्चस्व को तोड़ने का वही तरीका काम आ सकता है जो उत्तर भारत में कांग्रेस को तोड़ने में आया था। रामचरित मानस व हिन्दू धर्म के पुराने जातीय विधानों की आलोचना की लहर दलितों-पिछड़ों की उन युवतर पीढ़ियों को यह समझाने की कोशिश थी जो पूर्वजों की तुलना में जातिदंश से अपेक्षाकृत कम प्रताड़ित थे कि हिंदूवादी भाजपा मूलतः एक सवर्णवादी दल है।
जैसे-जैसे चुनाव निकट आ रहे हैं वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब विपक्षी दल सामाजिक बहुमत को राजनीतिक बहुमत में बदलकर देने जा रहे हैं। यानी कि नब्बे के दशक के मंडल बनाम कमंडल की अनुगूँजें 2024 के आगामी आम चुनावों में स्पष्ट रूप से सुनी जाएंगी।
धार्मिक-सामाजिक ध्रुवीकरणों ने ही कांग्रेस को कमजोर किया। पर अस्मिता आधारित राजनीति से उसका मुकाबला तभी से शुरू हो गया था जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी। 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का सभी प्रकार की अस्मिता आधारित राजनीति ने विरोध किया था क्योंकि इन्हें लगता था कि अंग्रेजों के रहते इनके समुदायों के हित सुरक्षित रहेंगे। इसके बहुत पहले कांग्रेस को अंग्रेजों द्वारा बांटो और राज करो की नीति के तहत कम्युनल अवार्ड की समस्या से जूझना पड़ा था। इस अवार्ड ने लोगों को समझाने की कोशिश की कि भारतीय लोगों के हित ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने में नहीं बल्कि अपने सामाजिक-साम्प्रदायिक हितों की सुरक्षा के लिए लड़ने में सुरक्षित हैं।
पूना पैक्ट के माध्यम से कांग्रेस ने दलित हितों को सुनिश्चित करने की कोशिश की फिर भी उसे आज़ादी की लड़ाई में अम्बेडकर का सहयोग नहीं मिला और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन का उन्होंने विरोध किया और वॉयसराय की काउंसिल के सदस्य बने रहे। हिन्दू-मुस्लिम टकराव तो विभाजन की त्रासदी के रुप में सामने आया। दक्षिण में द्रविड़ राजनीति भी कांग्रेस के लिए एक अस्मिताई चुनौती थी। हिन्दू महासभा ने भी इसी आधार पर 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। सिख राजनीति भी अलग सुर लेने की तरफ बढ़ रही थी। मुस्लिम लीग तो स्थायी सिरदर्द थी ही। ये सभी प्रकार की अस्मिताई राजनीति यह सिद्ध करने की कोशिश करती रहीं कि कांग्रेस उनके समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। इसलिए वे अलग से अंग्रेजों के संपर्क में रहते थे।
इसके बावजूद आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस ने नेहरू के नेतृत्व में अपने पहले मंत्रिमंडल में इन सभी अस्मिताई प्रतिनिधियों की भागीदारी सुनिश्चित करके इनके अलग सुरों को समाहित करने की कोशिश की। पर सत्ता में रहने के बावजूद इनके कांग्रेस विरोधी रवैये में कोई कमी नहीं आयी और नेहरू के समय में ही सबने फिर से अपना-अपना रास्ता पकड़ा और कांग्रेस विरोधी धुरी बने। चुनावी राजनीति ने इन महापुरुषों को प्रतीक बनाकर ध्रुवीकरण तेज करने के अवसर दिए और जिसने अंततः कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया।
पर यह विडंबना ही है कि जिन कारणों और आरोपों के तहत ये विविध स्वर, जो भारतीय समाज की अन्यायपूर्ण सामाजिक संरचना और जटिल विविधता की स्वाभाविक परिणिति थे पर राजनैतिक रुप से अतिरंजित थे, उन्हें ज्यादा मूलवादी ढंग से समाहित करती हुई भाजपा केंद्र में आ गयी। इन विभिन्न सामाजिक स्वरों ने भाजपा के उदय में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सहायता ही की।
कांग्रेस में जब राहुल गांधी का निर्णायक दौर शुरू हुआ तो उन्होंने फिर से कांग्रेस से छिटके समुदायों को वापस लाने के लिए उन्हीं की भाषा में बात शुरू की। पार्टी में दलित नेतृत्व को बढ़ाने में शुरू से लगे रहे पर बाद में उन्होंने पिछड़ी जातियों के महत्त्व को समझा और उनकी मांगों को स्वयं उठाना शुरू किया। दक्षिण के दलित समुदाय से आनेवाले मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाने में उनकी केंद्रीय भूमिका रही। पर उन्हें पिछड़ी जातियों से भी समर्थन की सख्त जरूरत है। इसलिए उन्होंने महिला आरक्षण में ओबीसी का कोटा और जातिगत जनगणना व आरक्षण का मुद्दा उठाना शुरू किया। जिन राज्यों में कांग्रेसी सरकारें हैं वहाँ उन्होंने मंत्रिमंडल व टिकट वितरण में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व की नीति अपनाई। उनका नारा है- जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी। इस बात की उन्हें चिंता नहीं है कि इससे उत्तर भारत के सवर्णों की कांग्रेस में वापसी टल सकती है।
जाहिर है, राहुल गांधी के इस कदम से सामाजिक न्यायवादी राजनीति से उनकी संगति मजबूत होगी और आगामी चुनावों में मंडल बनाम कमंडल के राजनीति मुहावरों की अनुगूँजें और अधिक मुखर होंगी। पर यह ध्यान देने की बात है कि न वह समय है, न वह भाजपा है। उसने अपने ढंग से मंडलवादी राजनीति से उपजी चुनौतियों का मुकाबला किया है और नई राहें तय की हैं। आज भाजपा उभार के लिए संघर्ष करती पार्टी नहीं बल्कि स्थापित महाशक्ति है। समाज के अलग अलग वर्गों में अपनी पैठ बनायी है जिसमें वो वर्ग भी समाहित हैं जिन्हें मंडल के नाम पर अलग करने का प्रयास किया गया था।
ऐसे में देखना होगा कि बहुजन को बहुमत में बदलने का कांग्रेसी प्रयास कितना सफल होता है। सवाल यह भी है क्या बहुजन के नाम पर वो सभी जन एकसाथ आने के लिए तैयार हैं जो आज राष्ट्रवाद के ज्वार पर सवार हैं।