Congress Ecosystem: राहुल गांधी जब से राजनीति के मैदान में लाये गये हैं तब से उन्होंने कांग्रेस के इतिहास में संभवत: पहली बार विचारधारा की राजनीति की बात करना शुरु कर दिया। जो कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं कहा गया उसे राहुल गांधी ने यूं ही नहीं कहना शुरु किया।
विचारधारा की राजनीति हमेशा संगठन के सहारे की जाती है। जबकि कांग्रेस की राजनीतिक बनावट ऐसी है कि उसके पास सांगठनिक ढांचा बचा नहीं है और विचारधारा वाली राजनीति तो उसने कभी की ही नहीं। फिर भी राहुल गांधी ने अगर ये कहना शुरु किया कि वो एक विचारधारा से लड़ रहे हैं तो निश्चित रूप से उनको किसी न किसी समूह द्वारा यह बात समझायी गयी है।
अब सवाल यह है कि राहुल गांधी किस विचारधारा से लड़ रहे हैं और खुद उनकी विचारधारा क्या है? राहुल गांधी घोषित तौर पर आरएसएस की विचारधारा से लड़ रहे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। सवाल यह है कि देश के भीतर वह कौन है जो आरएसएस की विचारधारा से लड़ रहा है और क्यों? तो इस सवाल का जवाब है, कम्युनिस्ट पार्टियां और वो आरएसएस की विचारधारा से इसलिए लड़ती आ रही हैं क्योंकि आरएसएस उनके वर्ग संघर्ष वाले सिद्धांत और मुस्लिम सांप्रदायिकता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है।
इसलिए लंबे समय से कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी, पत्रकार, षड्यंत्रकार, साहित्यकार सब मिलकर आरएसएस को एक शैतानी सोच वाला संगठन साबित करने का प्रयास करते आ रहे हैं। आरएसएस का हिन्दू राष्ट्र भी कम्युनिस्टों को बिल्कुल हजम नहीं होता और न ही अखण्ड भारत का सिद्धांत वो पचा पाते हैं। जब तक कांग्रेस में कद्दावर नेता रहे, वे कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों को अपने आसपास पालते जरूर रहे लेकिन उनके विचार को कभी कांग्रेस पर हावी नहीं होने दिया। लेकिन जिस दिन से राहुल गांधी कांग्रेस का भविष्य बने पूरा कम्युनिस्ट इकोसिस्टम राहुल गांधी के इर्द गिर्द जमा हो गया। बंगाल में सीपीएम के पतन के बाद विश्वविद्यालयों से निकले छात्रनेता हों या लंबे समय से कांग्रेस की छत्रछाया में पल रहे कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी। उन्हें राहुल गांधी में एक ऐसा ‘ब्लैंक स्पेस’ नजर आया जहां अपनी ‘विभाजनकारी योजनाओं’ को भर सकते थे और उनके जरिए पूरे देश में उसका प्रचार भी कर सकते थे। लगभग एक दशक से कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी ऐसा कर भी रहे हैं। राहुल और प्रियंका के आसपास कम्युनिस्टों का यही घेरा उनका अपना वो इकोसिस्टम है जिसके प्रभाव में वो ‘विचारधारा की राजनीति’ की बात बड़बड़ाते रहते हैं। इस इकोसिस्टम में सैम पित्रोदा, रघुराज रामन जैसे लोग भी हैं जो अपने ‘इन्नोवेटिव आइडियाज’ से कांग्रेस को फायदा कम, नुकसान अधिक पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन मोटे तौर पर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का जमावड़ा ही कांग्रेस का इकोसिस्टम बन गया है जो यह तय करता है कि राहुल गांधी क्या बोलेंगे या फिर कांग्रेस कहां किस बात पर क्या स्टैंड लेगी। नरेन्द्र मोदी की दस साल की सरकार में बार बार ऐसे बेवजह के मुद्दे उठाये गये जो राजनीतिक मांग से अधिक कम्युनिस्टों की विचारधारा से प्रभावित थे। राहुल गांधी नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने की जो असफल कोशिश कर चुके हैं, वह कुछ और नहीं बल्कि भारत में ‘हिंसक प्रवृत्ति वाले लोगों’ के बचाव में शुरु किया गया अभियान था जो बुरी तरह पिट गया। फिर भी कांग्रेस की विचारधारा निर्धारित करनेवाला यह इकोसिस्टम ऐसे ‘धूर्त और षड्यंत्रकारी लोगों का समूह’ है जो कोई भी नया प्रपंच रचने और उसे देश भर में चर्चा का विषय बना देने में सक्षम है। इसके विकल्प में जो भाजपा का इकोसिस्टम है वह बौद्धिक रूप से कमजोर और प्रतिक्रियावादी है। दो दशक पहले तक पार्टियों की राजनीति पत्रकारों के भरोसे ही चला करती थी। यह तब की बात है जब टीवी चौबीस घण्टे का नहीं हुआ था या फिर सोशल मीडिया की शुरुआत नहीं हुई थी। कांग्रेस या फिर दूसरे दलों की तरह भाजपा के पास भी अपने समर्थक पत्रकारों की टोली थी जो पार्टी की पहुंच को बढाने में मदद किया करती थी। लेकिन सोशल मीडिया के उदय के बाद और खासकर नरेन्द्र मोदी के उभार के बाद भाजपा का एक इकोसिस्टम तो बना है। सोशल मीडिया और मीडिया को छोड़ दें तो बाकी जगह जो लोग मोदी के समर्थन में खड़े दिखाई भी देते हैं तो वो भाजपा से अधिक मोदी से प्रभावित लोग हैं। इसमें भी मैन्युफैक्चर्ड सपोर्टर्स का रोल बीते दो चुनावों में रहा है जिसका लाभ भी मोदी को मिला है। लेकिन इस बार के चुनाव में उसका अभाव दिख रहा है। मोदी या फिर कहें भाजपा का कोई ईकोसिस्टम है तो वह टीवी और सोशल मीडिया तक सिमटा हुआ है। बीते दस सालों से भाजपा ने जो नैरेटिव वार लड़ा है उसका आधार यही लोग रहे हैं। खासकर सोशल मीडिया में राष्ट्रवादी समर्थक जो पैदा हुए वो भले ही सीधे तौर पर भाजपा या आरएसएस से जुड़े हुए न हों लेकिन उनके बोलने से कहीं न कहीं भाजपा को फायदा तो हुआ है। लेकिन सोशल मीडिया के ये नेशनलिस्ट उस तरह से भाजपा के इकोसिस्टम का हिस्सा नहीं बन पाये हैं जैसे कांग्रेस समर्थक कम्युनिस्ट या लिबरल पत्रकार बन गये हैं। वो एक एजंडा सेट करते हैं और सामूहिक रूप से उसका माहौल बनाते हैं। जबकि भाजपा या मोदी समर्थक इकोसिस्टम सिर्फ प्रतिक्रियावादी है। वह उन मुद्दों की हवा तो निकाल सकता है लेकिन खुद उनके खिलाफ कोई मुद्दा खड़ा नहीं कर सकता।
फिर भाजपा समर्थित इस इकोसिस्टम की अपनी बहुत सीमित सोच है। अधिकतर ये लोग हिन्दू मुसलमान के बंटवारे में ही उलझे रहते हैं जबकि कांग्रेस इकोसिस्टम से जुड़े लोग धर्म, जाति, संप्रदाय, महिला सुरक्षा, बेरोजगारी, नफरत, खान-पान और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे विविध मुद्दों पर जब चाहते हैं, मोदी और भाजपा को घेरते रहते हैं। अगर दोनों ही धड़ों के इकोसिस्टम का आकलन करें तो बौद्धिक रूप से कांग्रेस समर्थक धड़ा ज्यादा ताकतवर है। जबकि मोदी समर्थक इकोसिस्टम इस चुनाव में एन्टी मुस्लिम माहौल बनाने से आगे नहीं निकल पाया है। इस बार चुनाव में एन्टी मुस्लिम माहौल बनता है या नहीं बनता है, यह तो चार जून का चुनाव परिणाम बतायेगा लेकिन दस साल सत्ता में रहने के बाद भी मोदी समर्थक इकोसिस्टम उस कांग्रेस के इकोसिस्टम के सामने बहुत कमजोर ही नजर आ रहा है जो दस साल से सत्ता से बाहर है।