Indian Economy: भारत विश्व स्तर पर न केवल तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, बल्कि सबसे अधिक अरबपतियों वाला तीसरा देश भी बन चुका है। प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार 735 अरबपतियों के साथ अमेरिका पहले स्थान पर है जबकि 495 के आंकड़े के साथ चीन दूसरे स्थान पर काबिज है। भारत 169 अरबपतियों की संख्या के साथ दुनिया का तीसरा सबसे अधिक अरबपतियों वाला देश हो चुका है। लेकिन यक्ष प्रश्न है कि अर्थव्यवस्था के ऊंचे पायदान पर पहुंचने से क्या आम भारतीय के हालात बेहतर हुए हैं या यह सिर्फ आंकड़ेबाजी भर है?
भारतीय अर्थव्यवस्था पर आप जितनी चाहे उतनी भीषण बहस कर सकते हैं। एक पक्ष होगा जो इसके लाभ गिनवाते समय आपके समक्ष आंकड़ों का अंबार लगा देगा तो दूसरा पक्ष भी उतनी ही मजबूती और तार्किक क्षमता के आधार पर यह साबित करने का प्रयास करेगा कि हमारी तमाम मुसीबत का एकमात्र कारण पूंजीपतियों को समर्पित हमारी आर्थिक नीतियां हैं। लेकिन असली सच इन दोनों विचारों के बीच कहीं छिपा है।
नीति आयोग के हालिया आंकड़ों पर भरोसा करें तो हमारे देश में 13.5 करोड़ से अधिक लोग अब गरीब नहीं रहे। गरीबी बढ़ने की रफ्तार भी 47% से घटकर 44% तक आ चुकी है। आंकड़ों में यह गिरावट सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में बताई गई है, जिसके मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी 32.59% से घटकर अब मात्र 19.28% रह गई है। वही शहरों में यह दर 8.65% से घटकर 5.27% पर आ गई है।
लेकिन दूसरी तरफ इसी साल जनवरी महीने में आई ऑक्सफैम की रिपोर्ट भारत की गरीबी को लेकर जो कहानी बयां कर रही है, वह नीति आयोग के इन आंकड़ों से अलग है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान समय में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब भारत में है। लगभग 30 करोड़ लोग तो ऐसे हैं जो अत्यधिक गरीबी में जी रहे हैं। लेकिन अचरज की बात यह है कि ठीक इसी समय भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। देश में अरबपतियों की संख्या में 63% का बढोत्तरी हुई है।
एक साथ गरीबी के घटने और अमीरी के बढ़ने के इस आंकड़े पर गहराई से नजर दौड़ाते हैं तो कुछ और ही सच्चाई सामने आती है। विश्व बैंक की पॉवर्टी एंड शेयर्ड प्रोस्पेरिटी 2022 की रिपोर्ट के अनुसार बीते 2 वर्षों में देश के 5.6 करोड़ लोग अपनी निम्न मध्य वर्ग की हैसियत से फिसल कर गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गए हैं। इस दौरान दुनिया भर में गरीबों की लगभग 8 करोड़ संख्या बढ़ी है, उनमें से 80% केवल भारत के है।
विश्व असमानता रिपोर्ट के मुताबिक देश के कमजोर वंचित परिवारों की नई पीढ़ी का भविष्य तेजी से असुरक्षित हो रहा है। सिर्फ 10% लोग राष्ट्रीय आय का 57% हिस्सा हजम कर जा रहे हैं, जबकि 10% आबादी के सिर्फ एक प्रतिशत अमीर 22% आय के मालिक बन चुके हैं, जिससे राष्ट्रीय आय में निचले स्तर के 50% की हिस्सेदारी सिमट कर सिर्फ 13 प्रतिशत रह गई है।
ऐसे में आंकड़ों में चाहे जो दावे किए जा रहे हैं, लेकिन देश में बसावटों का ढांचा गांव और शहर के दो भागों में बट गया है, जिनके बीच आधारभूत संरचनाओं में भारी अंतर है। हठधर्मी योजनाओं के ऊपर आर्थिक अदूरदर्शिता के चलते सभ्य-असभ्य विकास और पिछड़ेपन की पंचमेल खिचड़ी बदस्तूर पक रही है।
कुछ देर के लिए मौजूदा चमक दमक को आंखों से दूर करके देखें तो अभावग्रस्त लोगों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। विस्थापन के लिए अभिशप्त गांव के गांव उजाड़ होते जा रहे हैं। एक झटके में ऐसी आबादी की संख्या 19 करोड़ से बढ़कर 35 करोड़ तक पहुंच चुकी है। एक ओर अपरिमित विकास के दावे हैं तो दूसरी ओर निम्न आय वाले परिवारों के ज्यादातर बच्चे आज भी आवश्यक वस्तुओं से वंचित है। दोहरे मानदंडों वाली इसी कहानी के एक पन्ने पर यह भी लिखा है कि कर्मचारियों की तनख्वाह में 3 से 15 प्रतिशत की कटौती हुई है, वही सीईओ जैसे पदधारियों के वेतन में 9% तक की बढ़ोतरी।
आर्थिक विषमता की स्थिति यह है कि देश में 70 करोड़ लोगों की संपति से ज्यादा पूंजी देश के केवल 21 गिने-चुने अमीरों के पास पहुंच चुकी है। बीते 2 साल में ही उनकी संपति में डेढ़ सौ प्रतिशत का इजाफा हुआ है। विडंबना पूर्ण है कि गांव और पिछड़े इलाकों से लोग लगातार भाग कर शहर की ओर आ रहे हैं, वहीं शहर के मालदार लोग महानगरों से अपने आप को उजाड़ कर विदेशों की ओर भाग रहे हैं।
किसान और कृषि उत्पाद की अनदेखी की जा रही है। देश में 50 लाख टन दाल, 130 लाख टन खाने के तेल का विदेशों से आयात हो रहा है। आयात बिल देश के कुल कृषि बजट से 3 गुना ज्यादा हो चुका है। बीते एक दशक में ही आयात बिल 150% तक बढ़ गया है। यानी की पूरी कारोबारी व्यूह रचना कारपोरेट घरानों और शहरों को समृद्ध करने के लिए बनाई गई है जो गांव के सीने पर मूंग दल रही है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक देश के 51% किसान खेती से ऊब चुके हैं। कृषि को घाटे का सौदा समझ अब वह खेती छोड़ना चाहते हैं। सरकारी नीतियों में बड़े-बड़े मॉल बनाने के इंतजाम किए जा रहे हैं लेकिन किसान की पैदावार को सुरक्षित रखने का अब भी कोई मुकम्मल जरिया तैयार नहीं किया गया है। हाल में जो लोग अरबपतियों की सूची में शामिल हुए हैं उनमें 32 स्वास्थ्य क्षेत्रों के हैं तो 7 दवा उद्योग में शुमार होते हैं। लेकिन इस सूची में आजादी के बाद से अब तक एक भी कृषक शामिल नहीं हो पाया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद देश ने अधिकांश क्षेत्रों में कामयाबी हासिल की है। 90 के दशक में साल भर में एक लाख मोटर कार बिकती थी आज महीने की औसत बिक्री एक लाख से ऊपर है। हम दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। एक खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में हमें 60 वर्ष लग गए लेकिन इसे 3 गुना हम महज एक दशक में हो गए हैं। छोटे-मोटे राष्ट्रों की जितनी जनसंख्या होती है उससे ज्यादा तो हर वर्ष हमारे देश में मोबाइल का कनेक्शन बढ़ जाता है। पहले जो स्थित रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर होती थी अब उससे ज्यादा भीड़ तो हवाई अड्डों पर होती है। लेकिन दीवार के उस पार की स्थिति अभी भी बदतर है। गरीबी और कर्ज से तंग आकर आत्महत्या करने वालों की मौन खबरें अक्सर सुनाई देती हैं।
गरीबी, लाचारी और बेबसी से जूझ रही इस बड़ी आबादी को अर्थव्यवस्था का सेंसेक्स भले 65 हजार के पार पहुंच गया हो, जीडीपी बढ़ने की दर 7 से 8% की हो गई हो, देश में अरबपतियों की संख्या तेज रफ्तार से बढ़ रही हो लेकिन यह सारी बातें आम गरीब के जले पर नमक छिड़कने जैसा ही होता है क्योंकि जो हमारी आर्थिक नीतियां हैं वह चिल्लाकर कह रही हैं कि अमीर और अमीर बनता है और गरीब गरीब ही रहता है। देश में 81 करोड़ लोगों को प्रतिमाह 5 किलो मुफ्त का राशन मुहैया कराया जाना इस बात की तस्दीक करता है कि अमीरी के समानांतर गरीबी की भी रफ्तार तेज है।