भारत में हर साल छोटी-बड़ी हज़ारों फिल्में बनती हैं. बहुत से निर्माता अपनी सारी मेहनत, ऊर्जा और पैसा एक फिल्म बनाने में लगा देते हैं, लेकिन उनकी यह फिल्म दर्शकों तक थिएटर या टीवी के ज़रिए सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलने के बाद ही पहुँच पाती है.
यह कहना गलत नहीं होगा कि एक फिल्म निर्माता की सारी मेहनत महज़ एक संस्था के हाथ में होती है. हालाँकि सेंसर होना जरूरी भी है, क्योंकि जहाँ भारत का संविधान आपको अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, वहीं ये अभिव्यक्ति पर उचित प्रतिबंध की भी बात करता है.
सेंसर बोर्ड को पूरा ध्यान देना होता है कि कोई भी ऐसा संदेश फिल्मों के ज़रिए लोगों तक न पहुँचे जिससे देश की शांति भंग हो.
मुंबई में व्हाइट हाउस नामक इमारत में सालों से बसा सेंसर बोर्ड का ऑफ़िस देखने में तो एक आम सरकारी ऑफ़िस की तरह है, लेकिन यही वो जगह है जहाँ बड़े-बड़े कलाकार भी अपनी फिल्मों को सर्टिफिकेट दिलाने के लिए चक्कर काटते हैं. भारत में फिल्मों को 4 तरह के सर्टिफिकेट दिए जाते हैं. ‘यू’ यानी ऐसी फिल्मों को हर कोई देख सकता है. वहीं ‘ए’ कैटेगरी की फिल्में केवल व्यस्कों के होती हैं. जबकि यू/ए फिल्मों को देखने के लिए 12 साल से छोटे बच्चों के साथ अभिभावकों का होना ज़रूरी है. जबकि ‘एस’ कैटगरी की फिल्में कुछ ख़ास वर्ग के लोगों को दिखाने की अनुमति नहीं होती है.
इस ऑफिस में करीब 11 बजे से 1 बजे तक एजेंट्स की भीड़ होती है. किसी भी फिल्म निर्माता को अपनी फिल्म के सर्टिफिकेट के लिए एक एजेंट के ज़रिये सेंसर बोर्ड में अर्ज़ी देनी होती है.
जो भी फिल्म निर्माता फिल्म के सर्टिफिकेट की अर्ज़ी देता है, एजेंट उसे सारे कागज़ात, फिल्म की सीडी या डीवीडी और अन्य चीज़ें सेंसर बोर्ड के ऑफ़िस में देने को कहता है और वह पूरी प्रक्रिया में साथ रहता है.
ज़ाहिर है एजेंट इस काम के लिए पैसे भी लेता है और यह रकम फिल्म कितनी लंबी है, उसपर निर्भर करता है. एजेंट एक शॉर्ट फिल्म के 5,000 से 10,000 रूपए तक लेता है.
उसके बाद फिल्म को 2 से 4 लोग (अगर शॉर्ट फिल्म है तो दो लोग, फीचर लेंथ या लांग फिल्म है तो 4 लोग) बहुत ही बारीकी से देखते हैं. इन लोगों को ‘रिव्यूअर्स’ कहा जाता है.
ये चार लोग सेंसर बोर्ड के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए फिल्म का रिव्यू करते हैं. जैसे कि अगर किसी भी शॉट में धूम्रपान हो रहा है तो वहाँ पर निर्माता को सिगरेट पीने के नुकसान से जुड़ी ‘कॉशन प्लेट’ लगानी होती है.
अगर फिल्म में कहीं पर भी जानवरों को दिखाया गया है, तो फिल्म निर्माता को चेन्नई में मौजूद एनिमल बोर्ड से ‘नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ लेना होता है और फिल्म की शुरुआत में एक टाइटल प्लेट डालनी होती है, जिसपर लिखा हो कि इस फिल्म के दौरान किसी भी जानवर को हानि नहीं पहुंचाई गई थी.
इसके अलावा अक्सर जिस शॉट पर उन्हें कोई आपत्ति होती है, वो उसे हटाने को कहते हैं या जहाँ पर अपशब्दों का इस्तेमाल किया गया हो, उसे मूक करने को कहते हैं.
हर एक रिव्यूअर को लिखित में रिपोर्ट तैयार करनी होती है, जिसमें होता है फिल्म को लेकर उनकी क्या सिफारिश हैं. जैसे कि फिल्म में क्या हटाना है, कहाँ मूक करना हैं, डायलॉग्स और अन्य चीज़ें कैसी हैं. एग्ज़ामिनिंग कमेटी यह भी तय करती है कि फिल्म को कौन सी कैटेगरी का सर्टिफिकेट देना चाहिए.
ये सारी रिपोर्ट चेयरमैन को दी जाती है और फिर चेयरमैन फिल्म सर्टिफिकेट जारी करता है. चेयरमैन फिल्म निर्माता के अनुरोध पर फिल्म को दोबारा आंकने के लिए रिवाइज़िंग कमेटी भी बैठा सकता है.
इसके अलावा अगर फिल्म में डबिंग हुई है तो उसके लिए डब सर्टिफिकेट भी चाहिए होता है और अगर फिल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं तो फिल्म के सर्टिफिकेट के पीछे इसकी पुष्टि लगाई जाती है.
जिस सर्टिफिकेट पर कट्स होते हैं, उसके सर्टिफिकेट पर एक ट्रायंगल निशान बनाया जाता है. सर्टिफिकेट मिलने के बाद निर्माता को फिल्म की कॉपी जिसमें ये सीबीएफ़सी यानी सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट लगा होता, वो बनाकर उन थिएटर और टीवी चैनल में भेजनी होती है जहां-जहां ये फिल्म रिलीज़ हो रही है.
यह सर्टिफिकेट फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है. किसी फिल्म को सर्टिफिकेट मिलने में 15 दिन से एक महीने तक का समय लग जाता है. शायद यही वजह है कि आजकल लोग यूट्यूब या दूसरे डिजिटल प्लेटफार्म पर अपनी फिल्म रिलीज़ करते हैं.
खबर है कि जल्द ही सेंसर बोर्ड इस पूरी प्रक्रिया को ऑनलाइन कर देगा और उम्मीद है कि ऑनलाइन होने से इस प्रक्रिया में थोड़ी तेज़ी और सरलता आ जाएगी.