राजनीति में परिवारवाद एक ऐसा नासूर है जो हर दल में जड़ें जमा चुका है। कोई जरूरी बताकर इसे आगे बढ़ा रहा है तो कोई मजबूरी बताकर। ऐसे में सिर्फ कांग्रेस को दोष देने से समस्या का समाधान कैसे होगा?
कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि पिछले कुछ दशकों से नेहरू गांधी परिवार का कोई भी व्यक्ति सत्ताशीर्ष पर नहीं है। कर्नाटक में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान खड़गे ने कहा कि परिवारवाद के नाम पर गांधी परिवार को निशाना बनाया जाता है जबकि पिछले तीन दशकों से इस परिवार का कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से सत्ता में नहीं है।
राजनीति की फितरत में कुछ भी अनायास नहीं होता, सब कुछ सुनियोजित योजना के तहत होता है। हर सोच लगभग चुनाव केंद्रित होती है और फैसले सत्ता की ओर ले जाने वाले। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह से अधिकांश विपक्षी पार्टियों को परिवारवादी कहकर घेरते रहे हैं उससे लगने लगा है कि कर्नाटक की तरह ही राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश के बाद अगले साल होने वाले आम चुनाव में परिवारवाद मुख्य मुद्दा बनने वाला है।
इसमें कोई शक नहीं कि परिवारवाद लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन है। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी बार-बार कहते हैं कि ‘यह लोकतंत्र के भीतर तानाशाही को जन्म देता है, पालता है, पोसता है, और देश पर अक्षमता का बोझ बढ़ाता है।’ थोड़ा इतिहास की ओर लौटकर देखें तो जब पंडित नेहरु ने अपनी इकलौती बेटी इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाया तो कांग्रेस के भीतर से ही प्रतिरोध की आवाज मुखर हुई थी। पार्टी के कई कद्दावर नेताओं ने इसे कांग्रेस की समझ तथा नीति के खिलाफ भी बताया था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निजलिंगप्पा ने तो यहां तक कहा था कि किसी गूंगी गुड़िया (इंदिरा गांधी) के हाथ में कांग्रेस की बागडोर देना न सिर्फ कांग्रेस पार्टी को कमजोर करेगा बल्कि इससे देश का भी अपेक्षित भला नहीं हो सकता।
बाद में सारे विपक्षी दलों ने भी इसे गंभीरता से उठाया था। लेकिन तब अधिकांश कांग्रेस जनों ने परिवारवादी निर्णय में आस्था व्यक्त की थी। सन 64 में पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी की कमान धीरे-धीरे उनकी बेटी इंदिरा गांधी के हाथ में आ गई। सन 75 आते-आते सत्ता के बल पर वह सर्वशक्तिमान बन गई। चाटुकार कांग्रेसियों ने तो यहां तक कह दिया कि इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।
जिस तरह पंडित नेहरू ने वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की परवाह किए बगैर अपनी बेटी को कांग्रेस में आगे बढ़ाया ठीक उसी तर्ज पर इंदिरा गांधी ने बारी बारी से अपने दोनों बेटों (संजय और राजीव गांधी) को अपने उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाया। अब एक लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस पार्टी स्वर्गीय राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाने में जुटी है।
तमाम राजनीतिक चिंतक मानते रहे हैं कि लोकतंत्र में परिवारवाद राजतंत्र के अवशेष के तौर पर है, जिसे लोकतांत्रिक जनचेतना के जरिए खत्म किया जा सकता है। पर हमारे देश और समाज में लोकतांत्रिक जनचेतना की विडंबना यह है कि किसी पार्टी का कोई नेता जब इस दुनिया से जाता है तो उसकी रिक्त लोकसभा या विधानसभा सीट पर सहानुभूति की लहर चलाकर उसका लाभ उठाने के लिए पार्टियां चुनाव या उपचुनाव में उनके परिवार के किसी सदस्य को स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानकर प्रत्याशी बना देती हैं। इस कवायद में पार्टियों को अपनी गलती, गलती नहीं लगती, अपना माफिया, माफिया नजर नहीं आता, अपना भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं दिखता, और अपना परिवारवाद, परिवारवाद नहीं लगता।
कर्नाटक में बाप बेटे दोनों को टिकट देने से भाजपा ने परहेज किया है लेकिन उसके मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई पुत्र एसआर बोम्मई परिवारवाद की ही उपज है, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी पुत्र एच डी देवगौड़ा की तरह। भाजपा के अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू पूर्व मुख्यमंत्री दोरजी खांडू के पुत्र हैं। महाराष्ट्र के देवेंद्र फडणवीस पूर्व विधायक गंगाधर फडणवीस के पुत्र हैं। केंद्र में पीयूष गोयल पुत्र वेद प्रकाश गोयल, धर्मेंद्र प्रधान पुत्र देवेंद्र प्रधान, अनुराग ठाकुर पुत्र प्रेम कुमार धूमल, किरण रिजिजू पुत्र रिंचन खारु, ज्योतिरादित्य सिंधिया पुत्र माधवराव सिंधिया, सब तो परिवारवाद की देन ही हैं। यहां तक कि जिस जितिन प्रसाद पुत्र जितेंद्र प्रसाद को भाजपा परिवारवादी राजनीति का प्रतीक बताया करती थी अब उन्हें यूपी सरकार में मंत्री बना रखा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री शिशिर अधिकारी के बेटे शुभेंदु अधिकारी पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता है।
इसी तरह क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी की कमान मुलायम सिंह के बाद उनके बेटे अखिलेश यादव के हाथ में है। राजद की कमान लालू यादव के बाद उनके बेटे तेजस्वी के हाथ में है। चिराग पासवान लोजपा के उत्तराधिकारी हैं। डीएमके पर अब करुणानिधि के बेटे स्टालिन काबिज है। इस क्रम में अलग चाल, चरित्र, चिंतन का दावा करने वाली भाजपा के 11% सांसदों की पृष्ठभूमि परिवारवादी है। उदाहरण के लिए विवेक ठाकुर पुत्र सीपी ठाकुर, नीरज शेखर पुत्र चंद्रशेखर, जयंत सिन्हा पुत्र यशवंत सिन्हा, प्रवेश वर्मा पुत्र साहिब सिंह वर्मा, दुष्यंत सिंह पुत्र वसुंधरा राजे, वरुण गांधी पुत्र मेनका गांधी, पूनम महाजन पुत्री प्रमोद महाजन, प्रीतम मुंडे और पद्मजा मुंडे पुत्री गोपीनाथ मुंडे, रीता बहुगुणा पुत्री हेमवती बहुगुणा, पंकज सिंह पुत्र राजनाथ सिंह आदि प्रमुख नाम लिए जा सकते हैं।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या परिवारवाद का खात्मा संभव है? तो इसका सीधा जवाब है , ‘फिलहाल नहीं’। हां, अगर आज के नेताओं में आदर्श स्थापित करने का भाव उत्पन्न हो तो देश के नागरिकों में परिवारवादी व्याधि से दूर रहने की लोकतांत्रिक चेतना भरी जा सकती है। ठीक वैसे ही जैसे सरदार पटेल ने सिर्फ इस बात पर अपने बेटे दाहिया भाई से संबंध तोड़ लिये थे क्योंकि उनके बेटे के अखबार में कुछ ऐसे लोगों द्वारा विज्ञापन छपवाये गये जो उसके जरिए सरकार से काम निकालना चाहते थे।
राजनीति से परिवारवाद के खात्मे के लिए सरदार पटेल जैसी कठोरता या फिर कांग्रेस नेता कैलाश नाथ काटजू जैसा वैराग्यभाव चाहिए जो बेटे को लाल इमली में डायरेक्टर बनने के ऑफर पर ही इतने नाराज हुए कि बेटे से कह दिया कि तुम डॉयरेक्टर बनोगे तो मुझे बंगाल का राज्यपाल पद छोड़ना पड़ेगा। इस कड़ी में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का नाम भी महत्वपूर्ण है जिनकी दो टूक राय थी कि ‘राजनीति में परिवारवाद के विरोध का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उसे खुद से न शुरू किया जाए।’
चंद्रशेखर राजनीति में बड़े नाम थे। लेकिन जीते-जी कभी अपने बेटों, परिजनों को आगे नहीं लाए। वर्ष 1989 में उनके बड़े बेटे पंकज ने उनके द्वारा खाली की गई महाराजगंज सीट से उपचुनाव लड़ने की इच्छा जताई। चंद्रशेखर की पत्नी भी चाहती थी कि सभी नेताओं की तरह चंद्रशेखर भी बेटे को आगे बढ़ने में मदद करें। चंद्रशेखर ने बेटे पंकज के सामने यह शर्त रख दी कि पंकज उनका सरकारी घर छोड़कर अलग रहे और अगले पांच साल तक महाराजगंज के मतदाताओं की ऐसी सेवा करें कि वहां की जनता उसे खुद अपना सांसद बनाने की मांग करें।
क्या आज के राजनीतिक दलों के नेताओं में परिवारवाद के नासूर को समाप्त करने के लिए ऐसा आदर्श आचरण प्रस्तुत करने का साहस है? अगर हां तो उन्हें आगे आना चाहिए, वरना दूसरों को नसीहत और अपनी मजबूरी बताकर उसे स्वीकार करने से बात नहीं बनेगी।