किसी व्यक्ति के कितने भी बच्चे हों लेकिन उसके घर में कोई नया नवजात आता है तो क्या उत्सव मनाने की बजाय शोक मनाता है? अगर नहीं तो फिर भारत की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक हो जाने पर हम शोकग्रस्त क्यों हो रहे हैं?
India Population: जनसंख्या के मामले में भारत चीन को पछाड़कर पहले स्थान पर पहुंच गया है। भारत में कुछ लोग बढ़ी हुई आबादी को लेकर सामाजिक सुरक्षा, नौकरियां, जीवन शैली, प्रति व्यक्ति आमदनी, महिलाओं की भागीदारी जैसे मसलों को आगे कर विलाप कर रहे हैं। लेकिन यहां सवाल है कि क्या इस विलाप की कोई वजह है?
बढ़ती आबादी का रोना रोने वाले लोग शायद यह भूल रहे हैं कि भारत सनातन से संतति वृद्धि को श्री वृद्धि के रूप में देखता रहा है। ऐसे में भारत की जनसंख्या के 142.46 करोड़ का आंकड़ा छूने के साथ ही भारतीयों के लिए यह साझी जिम्मेदारी, विविधता, और प्रगति का जश्न मनाने का अवसर है, जिसे हमने उत्तरोत्तर बेहतर होते सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, पोषण और चिकित्सा विज्ञान में अभूतपूर्व प्रगति से हासिल किया है। भारत के लगभग हर राज्य में मानव जीवन की प्रत्याशा बढ़ी है। जन्म दर, शिशु मृत्यु दर और बीमारियों के प्रसार में गिरावट आई है, और सिंचाई के पर्याप्त साधन से फसल की पैदावार में वृद्धि हुई है और पोषण में भी सुधार हुआ है।
हमारे यहां संतति में सतत वृद्धि के लिए पारंपरिक तौर पर दो मुख्य आधार रहे हैं। पहला संपत्ति का उत्तराधिकार और दूसरा पीढ़ी दर पीढ़ी वंशानुक्रम का जारी रखना। आज दुनिया में भूमंडलीकरण का दौर है। सभी समस्याओं की जड़ बढ़ी हुई आबादी को बताना विकसित अमेरिकी और यूरोपीय देशों के उपभोगवादी नजरिए का विस्तार है। जिन समाजों में ‘स्वयं के लिए सब कुछ’ का चलन है वहां निश्चित रूप से बढ़ती हुई आबादी उन्हें एक बोझ जैसी महसूस होगी लेकिन जिन समाजों में सबको साथ लेकर चलने का रिवाज है, वहां के लिए तो बढ़ती आबादी खुशी मनाने का मौका है या फिर शोक में डूब जाने का?
लेकिन बदलते समय परिवेश तथा पश्चिमी अंधानुकरण के कारण बढ़ती आबादी का डर अनजाने पीपल पर बैठे भूत के डर की तरह हमारे यहां भी पसर गया है। पश्चिम के देशों द्वारा बरसों से फैलाए जा रहे इस तरह के भ्रम डर के कारण कई देशों में आने वाले वर्षों में आबादी के बिल्कुल ही कम हो जाने अथवा कुछ दशक बाद खत्म हो जाने की भी आशंका जताई जा रही है। एक समय में कानून बनाकर आबादी कम करने की नीति पर चलने वाला देश चीन अपनी घटती कार्यशील आबादी के मद्देनजर कम से कम तीन बच्चे पैदा करने की नीति फिर से अख्तियार करने के लिए कार्य योजना पर काम कर रहा है।
ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र संघ की जिस रिपोर्ट में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत को आबादी के मामले में दुनिया का अव्वल देश बताया गया है, उसी रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि भारत में आबादी की वृद्धि लगातार स्थिर होती जा रही है। इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण रुझान है देश में कुल फर्टिलिटी रेट में गिरावट का। इस रेट का, जो मोटे तौर पर औसतन एक महिला के प्रसवों की संख्या को दर्शाती है, उसका 2.1 पर आ जाना, आबादी के स्थिर होने के लिए काफी समझा जाता है। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 2.2 से घटकर अब 2.0 ही रह गई है।
इसका अर्थ है आबादी में वृद्धि की रफ्तार पर तेजी से विराम लग रहा है। बिना किसी कड़े नियम कानून के ही देश के अधिकांश लोग एक अथवा दो बच्चों की नीति अपना चुके हैं। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक से ही देश में शहरीकरण की आंधी चल रही है। अब तो स्मार्ट सिटी का बोलबाला है। बेहतर शिक्षा, चिकित्सा आदि का हवाला देकर लोग गांवों से निकलकर शहरों की शरण में आ रहे हैं। बाहर से आकर शहर में बसने वाले अधिकांश शहरियों की कुल मिल्कियत एक नग छोटे से मकान तक ही सीमित रह जाती है। नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या की मजबूरी में फंसे यही वह लोग हैं जो छोटा परिवार सुखी परिवार का नारा बुलंद करते रहे हैं। जीवन के गणित में पेट काटकर किसी तरह एक वन बीएचके या टू बीएचके जोड़ने वाले अगर ज्यादा बच्चा पैदा कर लेंगे तो उन्हें उत्तराधिकार में क्या देंगे?
जो लोग चिंतित हैं कि 142 करोड़ की जनसंख्या बहुत अधिक हो गयी उन लोगों को सोचना चाहिए कि जनसंख्या के अंकों पर ध्यान केंद्रित करने से वास्तविक मुद्दे अस्पष्ट हो जाते हैं। कॉप 27 में भारत के टिकाऊ मिशन लाइफ को प्रशंसा मिली तो 2022-23 में जी-20 की अध्यक्षता भारत को सौंपने, भारत की कोविड महामारी से निपटने की रणनीति और कोविड कूटनीति की प्रशंसा के उदाहरण चारों ओर मौजूद हैं। भारत जी-20 की टैगलाइन ‘वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर’ को बहुत अच्छी तरह से परिलक्षित करता है। भारत जनसांख्यिकी रूप से अधिक और विभिन्न होने के कारण दुनिया को विविध बनाने में भी योगदान देने में समर्थ है।
जहां तक जमीनी स्थिति की बात है तो किसी भी देश के विकसित होने का एक महत्वपूर्ण आयाम उसका आर्थिक पक्ष होता है। विश्व बैंक वर्तमान में भारत को निम्न मध्यम आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत करता है यानी हमारी गिनती अभी ऐसे देशों में है जिसकी प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल राष्ट्रीय आय 1086 डालर, (लगभग 86000 रूपए) और 4255 डालर यानी लगभग (339000रूपए) के बीच है। देश की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय ₹128000 के करीब है यानी फिलहाल हम विश्व बैंक की निम्न मध्यम आय वाली श्रेणी में भी निचले आधार के ही करीब है। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन जैसे देशों के प्रति व्यक्ति वार्षिक आय के स्तर तक पहुंचने में हमें अभी करीब 7 से लेकर 8 गुना बढ़ोतरी करनी होगी। यह सहज संभव है क्योंकि साल 2000 की तुलना में आज हमारी प्रति व्यक्ति आय 4 गुना अधिक हुई है। स्वच्छता अभियान, टीकाकरण, बिजली कनेक्शन, खुले में शौच से मुक्ति, सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग यह सब विकसित भारत के ही मानक है।
जनसंख्या के भविष्य के रुझान ज्ञात हैं और भारत अवसरों का पूरा उपयोग करने की योजना बना सकता है जो जनसांख्यिकीय बदलाव के साथ आते हैं और बढ़ती संख्या के संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम करते हैं। सतत विकास के लिए जनसांख्यिकीय सहनशीलता बनाना महत्वपूर्ण है क्योंकि जनसांख्यिकीय सहनशीलता एक सक्रिय दृष्टिकोण है। यह पीढ़ियों में शिक्षा, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और शालीन काम तक पहुंच में निवेश के लिए योजना बनाने के महत्व पर बल देता है।
मानव जनसंख्या की कहानी अधिक समृद्ध है जिसे केवल संख्याओं से नहीं जोड़ा जा सकता। जनसांख्यिकीय परिवर्तनों के बीच समाज को फलने फूलने को सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं और लड़कियों के प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। कम प्रजनन क्षमता का परिवार और समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। कामकाजी उम्र की आबादी में इसकी दर अधिक चिंताजनक है। ऐसे में हमें गरीबी दूर करने के साथ-साथ आबादी को लगातार एक निश्चित सीमा तक बढ़ाने की नीति पर भी टिके रहना होगा।