Assembly Polls 2024: चुनावों में मुफ्त की रेवड़ियां बांटते हुए लोकलुभावन घोषणाएं किए जाने का बढ़ता चलन बेहद खतरनाक है. विडंबना यह है कि चुनावों के दौरान ही राजनीतिक दलों को जनता की समस्याओं-तकलीफों का ध्यान आता है और इन्हें दूर करने का उन्हें सबसे सरल तरीका मुफ्त की रेवड़ियां बांटना ही लगता है, फिर भले ही राज्य या देश आर्थिक बोझ के गर्त में और नीचे धंसता चला जाए.
हैरानी की बात यह है कि प्राय: सभी राजनीतिक दल यह काम इस तरह से करते हैं कि लगने लगता है कि क्या राजनीति में जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं बची है?
समाज के किसी भी वर्ग को मुफ्त में पैसे देना या देने का वादा करना क्या यह साबित नहीं करता कि आप उन्हें रोजगार या स्वरोजगार उपलब्ध कराने में विफल रहे हैं? राजकोष लबालब हो, तब भी उसे मुफ्त में लुटाने को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता, फिर अपने देश में तो प्राय: हर राज्य कर्ज में डूबा हुआ है और फिर भी राजनीतिक दल चुनावों के दौरान सरकारी खजाना लुटाने की होड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं. महाराष्ट्र – जहां एक पखवाड़े के अंदर चुनाव होने जा रहा है और चुनाव प्रचार जोरों पर जारी है – भी इसका अपवाद नहीं है.
राज्य पर पहले से 7.5 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है और चुनावों में जो भी सरकार चुनकर आएगी, वह अगर अपने चुनावी वादों को पूरा करेगी तो राज्य की वित्तीय स्थिति को चरमराते देर नहीं लगेगी. युवाओं, महिलाओं या किसानों को कौशल विकास के लिए मुफ्त में प्रशिक्षण देना सुनिश्चित किया जाए तो यह एक स्वागत योग्य कदम है.
क्योंकि अपने उस कौशल से वे राज्य की उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होंगे, लेकिन मुफ्त में कुछ भी प्रदान करने से राज्य को क्या हासिल होता है? विडंबना यह है कि जो दल विपक्ष में रहते हुए सत्तारूढ़ दल की इसके लिए आलोचना करता है, सत्ता हासिल करने के लिए उसे भी वही तरीके अपनाने में कोई संकोच नहीं होता और इस मामले में सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं.
जिस मध्यम वर्ग की गाढ़ी कमाई से भरने वाले राजकोष को राजनीतिक दल मुफ्त में लुटाते हैं, जब तक वह इस कुप्रथा के खिलाफ खड़ा होकर मुफ्त की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा नहीं करेगा, तक तक शायद मतदाताओं को नेता मूर्ख ही समझते रहेंगे और चुनावों के दौरान हमें लॉलीपॉप दिखाते रहेंगे!