नीतीश कुमार ने पूर्व आईएएस अफसर मनीष वर्मा को जेडीयू का राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. मनीष वर्मा के नाम की चर्चा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उत्तराधिकारी के तौर पर भी होती रही है – चर्चा तो मनीष वर्मा के नालंदा से लोकसभा चुनाव लड़ने की भी रही, लेकिन संभव नहीं हो सका.
मनीष वर्मा के नीतीश कुमार के उत्तराधिकारी के रूप में चर्चा ऐसे वक्त हो रही है, जब बिहार में करीब डेढ़ साल बाद विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. ठीक वैसे ही जैसे ओडिशा में वीके पांडियन को नवीन पटनायक के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा था – उस नैरेटिव का क्या हश्र हुआ, ओडिशा के हालिया चुनाव के नतीजे मिसाल हैं.
ये ठीक है कि केंद्र में सत्ता बरकरार रखने के लिए बीजेपी नेतृत्व अभी नीतीश कुमार पर काफी निर्भर है, लेकिन कई कानून पास कराने के मामले ओडिशा के मुख्यमंत्री रहते नवीन पटनायक भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेता अमित शाह के लिए नीतीश कुमार से कम अहमियत नहीं रखते थे.
अव्वल तो ऐसा लगता नहीं, लेकिन अगर वास्तव में नीतीश कुमार के मन में मनीष वर्मा को लेकर कोई गंभीर ख्याल है, तो एक बार नवीन पटनायक से सलाह जरूर ले लेनी चाहिये. वैसे भी दोनो काफी पुराने दोस्त हैं – और नीतीश कुमार तो राजनीति में संबंधों की हमेशा ही दुहाई देते रहते हैं. चाहे वो एनडीए में बीजेपी के साथ रहें, या उससे दूर.
मनीष वर्मा और वीके पांडियन में कॉमन बातें
नीतीश कुमार और नवीन पटनायक की मुख्यमंत्री की पारी एक ही साथ शुरू हुई थी. 3 मार्च, 2000 को नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, और 5 मार्च, 2000 को नवीन पटनायक पहली बार ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे.
बहुमत का इंतजाम न होने के चलते नीतीश कुमार को हफ्ते भर बाद ही रुखसत होना पड़ा, लेकिन नवीन पटनायक अभी तक बने हुए थे. 2024 के विधानसभा चुनाव में नवीन पटनायक को बीजेपी ने सत्ता से बेदखल कर दिया.
नवीन पटनायक और नीतीश कुमार की राजनीति में बीजेपी कॉमन फैक्टर रही है. नवीन पटनायक ने तो लगातार 10 साल तक बीजेपी का खुलकर सपोर्ट किया है, लेकिन नीतीश कुमार बीच बीच में पाला बदलकर बीजेपी विरोधी खेमे में चले जाते रहे हैं. मौजूदा स्थिति ये है कि नीतीश कुमार पूरी तरह बीजेपी के साथ हैं, जबकि नवीन पटनायक खिलाफ हो चुके हैं.
नीतीश कुमार के लिए मनीष वर्मा नौकरशाही की पृष्ठभूमि से आने वाले पहले राजनीतिक साथी नहीं हैं. बल्कि, मनीष वर्मा ऐसी लंबी फेहरिस्त का हिस्सा भर हैं. इस मामले में नीतीश कुमार का लंबा अनुभव हो सकता है, लेकिन नवीन पटनायक के जख्म बिलकुल ताजा हैं.
मनीष वर्मा की ही तरह वीके पांडियन ने भी औपचारिक रूप से बीजू जनता दल की सदस्यता ली थी. मनीष वर्मा को लेकर तो अभी जेडीयू में नंबर दो बनाये जाने की चर्चा भर है, लेकिन वीके पांडियन की तो सरकार में भी नंबर दो वाली ही हैसियत थी. केंद्र सरकार से वीआरएस मंजूर होते ही वीके पांडियन को 5T और नबीन ओडिशा का चेयरमैन बनाने के साथ ही कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया था.
ये भी संयोग ही है कि मनीष वर्मा और वीके पांडियन दोनो ही ओडिशा कैडर के ही आईएएस रहे हैं. और दोनो ने ही बाद में अपना कैडर बदल लिया था. वीके पांडियन पंजाब कैडर से ओडिशा कैडर में आ गये थे, और मनीष वर्मा ओडिशा कैडर से बिहार कैडर में.
देखा जाये तो 24 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद नवीन पटनायक के सत्ता गंवाने की एक बड़ी वजह वीके पांडियन भी हैं. शायद इसी कारण विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद वीके पांडियन ने सक्रिय राजनीति छोड़ देने की घोषणा कर दी.
चुनावों के दौरान नवीन पटनायक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेता वीके पांडियन का नाम लेकर ही टारगेट करते रहे. नवीन पटनायक की सेहत पर सवाल उठाये जाते थे, और लोगों को बीजेपी की तरफ से समझाया जाता था कि सरकार तो कोई और ही चला रहा है.
आखिर में नवीन पटनायक को कहना पड़ा कि वो पूरी तरह स्वस्थ हैं, और वीके पांडियन उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं हैं – लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, क्योंकि ओडिशा के लोग पूरी तरह मन बना चुके थे.
आरसीपी सिंह केस तो नीतीश का निहायत ही निजी अनुभव है
जैसे कभी वीके पांडियन को नवीन पटनायक का उत्तराधिकारी बनाये जाने की चर्चा रही, मनीष वर्मा को लेकर भी काफी दिनों से ऐसी बातें होती रही हैं. ऐसी चर्चा तो किसी जमाने में आरसीपी सिंह को लेकर भी हुआ करती थी.
मनीष वर्मा को भी आरसीपी सिंह की ही तरह जेडीयू का महासचिव बनाया गया है. बतौर महासचिव मनीष वर्मा के पास भी आरसीपी सिंह जैसे ही अधिकार होंगे, लेकिन आरसीपी की तरह अब किसी को एकछत्र राज तो मिलने से रहा. निश्चित तौर पर मनीष वर्मा भी आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार के इलाके नालंदा से ही आते हैं और तीनों एक ही कुर्मी जाति से हैं.
आरसीपी सिंह से धोखा खाने के बाद नीतीश कुमार किसी एक नेता पर तो सब कुछ सौंप देने से रहे, लिहाजा कार्यकारी अध्यक्ष बनाये गये संजय झा के जिम्मे भी कुछ जरूरी काम होंगे. आरसीपी सिंह को नीतीश कुमार ने ऐसे दौर में अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी थी जब बीजेपी के साथ होकर भी उनको लोहा लेना पड़ता था. आरसीपी सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद बीजेपी से डील की जिम्मेदारी नीतीश कुमार से उनके ऊपर आ गई थी.
और उसी जिम्मेदारी को आगे बढ़ाते हुए आरसीपी सिंह ने अपने लिए डील कर ली, और केंद्र सरकार में मंत्री बन गये. फिलहाल, बीजेपी से बात करने की जिम्मेदारी नये कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा को सौंपी गई है, और फिर से कहीं पुरानी रवायत दोहरा न दी जाये, इसलिए मनीष वर्मा को बैलेंसिंग फैक्टर के तौर पर खड़ा कर दिया गया है.
एक जमाने में नीतीश कुमार के बाद नंबर दो बनने के लिए आरसीपी सिंह और ललन सिंह आपस में ही भिड़े रहते थे, लेकिन जैसे ही नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को उपाध्यक्ष बना दिया, दोनों ने हाथ मिला लिया – और दोनो की जोड़ी तब तक बनी रही जब तक कि प्रशांत किशोर को जेडीयू से बाहर का रास्ता नहीं दिखा दिया गया.
बिहार के डीजीपी रहते गुप्तेश्वर पांडेय को तो नीतीश कुमार ने बिलकुल भाव नहीं दिया, लेकिन पूर्व नौकरशाह आरसीपी सिंह कई साल तक साये की तरह उनके आस पास बने रहे. एक और पूर्व नौकरशाह पवन कुमार वर्मा भी नीतीश कुमार के काफी करीबी रहे हैं – लेकिन सीएए को लेकर विरोध हो रहे विरोध प्रदर्शनों के दौरान बयानबाजी को लेकर नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर के साथ पवन वर्मा को भी जेडीयू से बाहर कर दिया गया था. काफी समय बाद दोनों के एक साथ नीतीश कुमार के घर जाकर मुलाकात करने की भी काफी चर्चा रही.
हाल के बरसों में प्रशांत किशोर से लेकर आरसीपी सिंह के प्रति नीतीश कुमार का राग-द्वेष सबसे सटीक उदाहरण हैं. जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर शरद पवार तक को निबटा देने वाले नीतीश कुमार के लिए मनीष वर्मा क्या मायने रखते हैं, अभी देखना होगा और ये बात वो भी जानते ही होंगे.