शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की 24वीं बैठक 4 जुलाई को कज़ाख़स्तान की राजधानी अस्ताना में होगी. रूस, चीन, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देश इसके सदस्य हैं.
हालांकि पश्चिमी देश हमेशा से इस संगठन को संदिग्ध नजरों से देखते रहे हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर इसकी अहमियत के बारे में चर्चा अक्सर होती है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लेंगे. मोदी 8 और 9 जुलाई को रूस की यात्रा पर रहेंगे.
इसलिए विदेश मंत्री एस. जयशंकर भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं.
आइए जानते हैं कि शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ क्या है और मौजूदा सामरिक दुनिया में इसकी क्या अहमियत है.
शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की स्थापना वर्ष 2001 में चीन, रूस और सोवियत संघ का हिस्सा रहे चार मध्य एशियाई देशों कज़ाख़स्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान ने मिलकर थी.
इसका उदय रूस, चीन और इन मध्य एशियाई देशों के बीच वर्ष 1996 में सीमा को लेकर हुए एक समझौते के साथ हुआ था. इसे ‘शंघाई फाइव’ समझौता कहा गया.
चीन के सुझाव पर इस समझौते का विस्तार, क्षेत्र के देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिए किया गया.
सदस्य देशों के बीच व्यापार और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए, संगठन की भूमिका भी बढ़ाने की बात की गई.
ब्रिटेन के इंटरनेशन इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ के निजेल गॉल्ड डेविस का कहना है, ”ये वो दौर था जब सोवियत संघ में टूट के नकारात्मक नतीजों और अव्यवस्थाओं के बारे में पूरी दुनिया में चिंता जताई जा रही थी. दरअसल सोवियत संघ टूटने के बाद ये देश एक क्षेत्रीय व्यवस्था कायम करना चाहते थे.”
एससीओ पर चीन का कितना असर
भारत और पाकिस्तान साल 2017 में इस संगठन में शामिल हुए थे, जबकि ईरान वर्ष 2023 में इसका सदस्य बना.
इस समय एससीओ देशों में पूरी दुनिया की लगभग 40 फीसदी आबादी रहती है. पूरी दुनिया की जीडीपी में एससीओ देशों की 20 फीसदी हिस्सेदारी है. दुनिया भर के तेल रिजर्व का 20 फीसदी हिस्सा इन्हीं देशों में है.
कज़ाख़स्तान में एससीओ संगठन की बैठक में इस बार भी पर्यवेक्षक देश शामिल होंगे. इस बार अफ़ग़ानिस्तान ओर मंगोलिया पर्यवेक्षक देश हैं, जबकि तुर्की और सऊदी अरब ‘डायलॉग पार्टनर’ देश के तौर पर शामिल होंगे.
एससीओ का कहना है कि इसका एक अहम मकसद ‘तीन बुराइयों’ यानी चरमपंथ, अलगाववाद और अतिवाद से लड़ना है.
ब्रिटेन स्थित विदेश मामलों के थिंक टैंक चैटम हाउस के एनेट बोर का कहना है, ” इन मुद्दों का सबसे ज्यादा वास्ता चीन से है, क्योंकि उसके उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र शिनज़ियांग में अलगाववाद की आवाज़ें उठ रही हैं.”
चीन के इस इलाके में वीगर राष्ट्रवादी, स्वतंत्र शिनज़ियांग या पूर्वी तुर्किस्तान की संयुक्त राष्ट्र में मांग कर चुके हैं.चीन इसके लिए उठ खड़े हुए उग्रवादियों को दबाना चाहता है.
इस इलाके में ज्यादातर वीगरों की आबादी है. ये मुस्लिम और नस्ली तौर पर तुर्की मूल के लोग हैं.
चीन इस इलाके में दूसरे मध्य एशियाई देशों के साथ मिलकर सीमा पार से आने वाले अलगाववादी ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के चरमपंथियों और अलगाववादियों को काबू करने की कोशिश कर रहा है.
रूस भी इस्लामिक स्टेट-खोरासन और हिज़्ब उत-तहरीर जैसे चरमपंथी इस्लामी संगठनों को रोकने में दिलचस्पी रखता है. रूस चाहता है कि ये संगठन उसकी जमीन पर हमला न करें.
एससीओ ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए ‘क्षेत्रीय चरमपंथी विरोधी ढांचा’ तैयार किया है. इसके तहत आतंकवाद विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए ख़ुफ़िया जानकारी का आदान-प्रदान होता है.
हालांकि किंग्स कॉलेज लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ वॉर स्टडीज़ की नताशा कर्ट का कहना है कि ज्यादातर चरमपंथ विरोधी गतिविधियां दो देशों के बीच द्विपक्षीय समझौते का नतीजा होती हैं. इसी के तहत ये काम होता है.
नताशा कर्ट कहती हैं कि चीन एससीओ को मध्य एशिया में अपने व्यापारिक संपर्क को बढ़ावा देने के जरिये के तौर पर भी देखता है.
चीन, क़ज़ाख़स्तान जैसे देशों से ज्यादा से ज्यादा तेल और गैस खरीदना चाहता है.
उसने यहां से तेल और प्राकृतिक गैस की सप्लाई हासिल करने में सफलता हासिल की है.
चीन अपने ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ के जरिये पश्चिमी देशों के साथ जो संपर्क कायम करना चाहता है, वे इन मध्य एशियाई देशों से ही होकर गुजरेंगे.
नताशा कर्ट कहती हैं, ” चीन अपने निर्यात के लिए रूसी रेलवे पर निर्भर रहा है. इसलिए वो पूरे मध्य एशिया में ऐसा रेल नेटवर्क बनाना चाहता है जो ईरान में समुद्र तक इसके सामान को पहुंचाने में मदद करे.”
क्या एससीओ अपना असर नहीं दिखा पा रहा है?
नताशा कर्ट कहती हैं कि एससीओ का प्रतीकात्मक महत्व भी है. वो कहती हैं, ”चीन एससीओ को ऐसे मंच के तौर पर बढ़ावा देना चाहता है, जो पश्चिमी देशों की अगुआई वाली विश्व व्यवस्था के विकल्प की बात करता है. चीन ‘इसे इंटर सिविलाइजेशन डायलॉग’ कहता है. चीन इस मंच के ज़रिये अपने इस नज़रिये को बढ़ावा देना चाहता है.”
हालांकि गॉल्ड डेविस का कहना है कि एससीओ में बड़े और ताकतवर देश शामिल हैं.
इस लिहाज से देखें तो ये संगठन अपना असर नहीं छोड़ पाया है. इसके खाते में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है.
वो कहते हैं,” इसे एक नए और गैर पश्चिमी बड़े संगठन के तौर पर पेश किया जा रहा है. लेकिन समग्रता में इसका असर कम रहा है. इसके सदस्य देशों के बीच आपसी विश्वास कम है. सदस्य देशों के बीच सहयोग,अपनी क्षमताओं को साझा करने और बड़ी उपलब्धि हासिल करने के लिए जो विश्वास होना चाहिए, वो नहीं है.”
वो कहते हैं,”पश्चिमी देश एससीओ को लेकर चिंतित नहीं है. वो विश्व राजनीति में इसे ऐसी ताकत के तौर पर नहीं देखते, जिससे उन्हें चिंता हो. हालांकि वो रूस-चीन और रूस-ईरान के बीच बढ़ते रिश्तों को लेकर चिंतित हैं.”
भारत,पाकिस्तान और ईरान एससीओ के सदस्य बन चुके हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से सीमा को लेकर विवाद चल रहा है. चीन और भारत के बीच भी सीमा विवाद है.पाकिस्तान और ईरान के बीच विवाद रहे हैं.
डॉ बोर कहते हैं, ”इन देशों के बीच आपसी विवाद एससीओ के सम्मेलनों के लिए चिंता का विषय बन जाते हैं. इसने इस संगठन के मूल उद्देश्यों को कमजोर कर दिया है. इन वजहों ने मध्य एशियाई देशों को भी चिंता में डाल दिया है. उन्हें लगता है कि इस मंच में उनकी अहमियत कम है.”
गॉल्ड डेविस ने कहा, ”एससीओ ने सदस्य देशों के बीच सहयोग बढ़ाने की तुलना में अपनी सदस्यता संख्या बढ़ाकर संगठन की अहमियत बताने की कोशिश की है.”
इस बार के एससीओ सम्मेलन में क्या होगा?
अस्ताना में हो रहे दो दिवसीय सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाकात की संभावना है.
इस बार के सम्मेलन में बेलारूस को एससीओ का सदस्य बनाने की औपचारिकता पूरी की जा सकती है.
नताशा कर्ट कहती हैं, ”इसमें कुछ हद तक रूस की भूमिका है. रूस उसे सदस्य बनवाकर, यूक्रेन युद्ध में उसकी मदद को रेखांकित करना चाहता है. लेकिन चीन भी बेलारूस के साथ अपने आर्थिक रिश्तों को मजबूत करना चाहता है.”
इस साल मार्च में इस्लामिक स्टेट ने मॉस्को के क्रॉकस सिटी हॉल में हुए हमले की जिम्मेदारी ली थी. उम्मीद है कि रूस में चरमपंथी हमलों पर इस सम्मेलन में चर्चा होगी.
इसी साल मार्च में बंदूकधारियों ने मॉस्को के बाहरी इलाके में स्थित क्रॉकस सिटी हॉल पर हमला कर 145 लोगों को मार दिया था और 500 लोगों को घायल कर दिया था.
इस्लामिक स्टेट-खोरासान ने इसकी जिम्मेदारी ली थी और रूसी अधिकारियों ने संदेह जताया था कि हमले ताजिकिस्तान से आए बंदूकधारियों ने किए थे.
लेकिन गॉल्ड डेविस ने कहा कि जब चरमपंथ की बात आती है तो रूस इससे अपना ध्यान हटा लेता है क्योंकि अभी उसका पूरा ध्यान यूक्रेन युद्ध पर है.
वो कहते हैं कि रूस को अब इस बात पर गौर करना होगा कि चरमपंथी ताजिकिस्तान से आकर सीधे रूसी इलाके पर हमला कर सकते हैं.
भारत की भागीदारी