जितेंद्र शर्मा, नई दिल्ली। ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे..!’ यह सिर्फ एक गीत नहीं था, जिसके बोल और धुन अच्छी हो, बल्कि इसका संदेश बड़ा था। इसी धुन के आगे के शब्द ‘अयोध्या भी सजा दी है..
काशी भी सजा दी है.. मथुरा भी सजाएंगे..’ भविष्य का एजेंडा समझा रहे थे। इतिहास गवाह है कि भाजपा के उत्थान में राम मंदिर की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन खास तौर पर अयोध्या में भाजपा प्रत्याशी की हार के अलावा एटा से राजवीर सिंह की पराजय और मेरठ में अरुण गोविल की मुश्किल से निकली जीत के संकेत हैं कि संभवत: राजनीति में राम मंदिर का यह अंतिम अध्याय था।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास होने के साथ ही इन संभावनाओं की भी नींव पड़ गई थी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा राम मंदिर का हो सकता है। फिर जिस तेजी के साथ राम मंदिर का निर्माण हुआ, भाजपा की केंद्र और प्रदेश सरकार ने आपसी समन्वय के साथ अयोध्या का कायाकल्प कराया और चुनाव से कुछ माह पहले ही 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की। आस्था का यह उल्लास देश के कोने-कोने में पहुंचा।
राजनीति पर आकर सिमट गए
भाजपा ने प्रत्यक्ष तौर पर बारंबार कहा कि राम मंदिर उसके लिए राजनीति का विषय नहीं है, लेकिन माना जा रहा था कि देशभर में उठे आस्था के भावनात्मक वेग का चुनावी लाभ उसे जरूर मिलेगा, लेकिन चुनाव परिणाम अंतत: मंडल-कमंडल की राजनीति पर आकर सिमट गए। सबसे अधिक अयोध्या यानी फैजाबाद संसदीय सीट के चुनाव परिणामें ने चौंकाया है।
जातीय समीकरणों की सेज पर बैठी सपा
यहां भाजपा के दो बार के सांसद लल्लू सिंह तीसरी बार मैदान में थे। आशान्वित थे कि आस्था का ज्वार और विकास का अभूतपूर्व माडल अपनी जीत सुनिश्चित करेगा, लेकिन वह जातीय समीकरणों की सेज पर बैठे सपा के अवधेश प्रसाद से हार गए। यहां धर्म की चादर जातीय खांचों को ढंक नहीं पाई। इसी तरह एटा संसदीय सीट पर तीसरी बार राजवीर सिंह चुनाव मैदान में थे। उनके चुनावी मंचों पर बैनरों पर लिखा था- कल्याण के राम..।
केंद्र में मेरठ संसदीय सीट भी थी
दरअसल, राम मंदिर के लिए 1992 में बतौर मुख्यमंत्री अपनी सत्ता का परित्याग कर देने वाले कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह के साथ ही भाजपा को आस थी कि राम मंदिर निर्माण का राजनीतिक प्रसाद अयोध्या की तरह ही एटा में भी मिलेगा, लेकिन वह भी शाक्य-मौर्य बहुल क्षेत्र में सपा के देवेश शाक्य से नहीं जीत सके। वहीं, इस चुनाव में राम मंदिर की चुनावी चर्चा के केंद्र में मेरठ संसदीय सीट भी थी, क्योंकि यहां से भाजपा ने रामायण धारावाहिक में राम की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अरुण गोविल को चुनाव लड़ाया।
अखिलेश यादव का जातीय दांव
माना जा रहा था कि यहां निष्कंटक जीत के साथ ही चुनाव प्रचार के द्वारा अरुण गोविल प्रदेश की अन्य सीटों पर भी भाजपा के पक्ष में राममय माहौल बनाने में सहायक साबित होंगे। मगर, वह भी अखिलेश यादव के जातीय दांव में हांफ गए। सामान्य सीट पर दलित सुनीता वर्मा को चुनाव लड़ाकर सपा ने ऐसे समीकरण उलझाए कि गोविल जैसे-तैसे जीत सके।
1990 से 2024 तक राजनीतिक उतार-चढ़ाव
हांडी के यह तीन चावल बताने के लिए पर्याप्त हैं कि विपक्ष ने मंडल पार्ट-2 की राजनीति का पाठ इतना तेज किया कि दशकों तक भाजपा की उम्मीदों में ऊर्जा भरता रहा राम मंदिर मुद्दा मंदिर बनते ही ऐसा ओझल हुआ कि उसका लाभ अवध में भी न मिल सका। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक मानकर चल रहे हैं कि 1990 से 2024 तक राजनीतिक उतार-चढ़ाव के साथ सफर करते रहे राम मंदिर के राजनीतिक विमर्श का यह अंतिम अध्याय था और अब इस मुद्दे की राजनीति को ‘राम-राम’ मान लेना चाहिए।