लोकसभा चुनाव-2024 की प्रक्रिया लगभग पूरी होने को है। चंद रोज बाद नई सरकार की शक्ल भी साफ हो जाएगी। हम आशा कर सकते हैं कि अगले पखवाड़े तक वह अपना कामकाज संभाल लेगी लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस नई निर्वाचित सरकार के सामने उसकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं?
जो भी राजनीतिक दल या गठबंधन सरकार बनाए, उनके लिए या तो चुनाव पूर्व घोषित वचन पत्र/घोषणा पत्र ही काम की शुरुआत का आधार होना चाहिए।
गठबंधन के हुकूमत में आने की स्थिति में साझा कार्य योजना के आधार पर सरकारी विभागों की प्राथमिकताएं तय होनी चाहिए। यह आदर्श स्थिति मानी जा सकती है पर, अनुभव कहता है कि व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं होता। कुछ बरस पहले एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि सियासी पार्टियां निर्वाचन से पहले अवाम के सामने जिन वादों का पुलिंदा प्रस्तुत करती हैं, वे सत्ता में आने के बाद काफी हद तक हाशिए पर चले जाते हैं और हुकूमत के चौधरियों के अपने हित प्रधान हो जाते हैं।
जनता के सामने पेश किए गए वचन पत्र को बांधकर अगले चुनाव तक के लिए अटारी पर रख दिया जाता है। जब अगला चुनाव आता है तो रंग-रोगन करके, उसकी धूल झाड़-पोंछ कर दोबारा मतदाताओं के सामने परोस दिया जाता । सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष भी निकला था कि घोषणा पत्र या वचन पत्र केवल चुनाव से पहले लोगों को लुभाने का जरिया बनकर रह गए । उनके अंदर जो बातें कही गई होती हैं, वे कभी अमल में नहीं आतीं और पार्टियों के छिपे हुए पैराशूट एजेंडे अचानक सियासी आसमान से गिरने लगते हैं।
दरअसल यह हरकत लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है। यह मतदाताओं को अशिक्षित मानते रहने और उन्हें सिर्फ वोट उगलने वाली मशीन समझने के कारण होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब से सियासत पेशा बनी है तो राजनीतिक दल सोचने लगे हैं कि प्रत्येक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के वोटरों के स्वयंभू ठेकेदारों को साधना ही पर्याप्त है। चुने हुए नुमाइंदे मतदाताओं के हित में काम न भी करें तो भी क्या नुकसान होने वाला है। इसलिए जीतने के बाद उनकी सबसे पहली प्राथमिकता चुनाव में लगाए गए पैसे की वसूली होती है।
किसी कारोबार की तरह यह पैसा भी एक तरह से पूंजी निवेश ही होता है। इसलिए निर्वाचित होने के बाद तीन बड़ी प्राथमिकताएं हर राजनेता की हो जाती हैं। एक- निवेश किए गए पैसे की वसूली, दो- उस पैसे का मुनाफा निकालना तथा तीन- अगले चुनाव के लिए लागत में बीस-पच्चीस प्रतिशत बढ़ाकर पैसा निकालकर सुरक्षित रखना। ऐसे में वचन पत्र या घोषणा पत्र का रद्दी की टोकरी में जाना स्वाभाविक है।
हम जानते हैं कि यह प्रक्रिया आसानी से नहीं रुक सकती। तो फिर इस प्रक्रिया में राष्ट्र के बुनियादी मसले कैसे अव्वल दर्जे पर लाए जाएं? पैसे के जोर को रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए? मौजूदा स्थितियों में लोकसभा चुनाव में कम-से-कम चालीस करोड़ और विधानसभा चुनाव में पच्चीस से तीस करोड़ रुपए खर्च होना मामूली बात है। इस कारण संसद या विधानसभाओं में पहुंचने के लिए न्यूनतम योग्यता करोड़पति होना है, न कि प्रतिभाशाली होना।
भारत जैसे विकासशील मुल्क की समस्याओं को देखें तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई अरसे से बड़ा मुद्दा बनी हुई है। किसी भी दल या विचारधारा की सरकार चुनी जाए, उसे शपथ लेते ही कम-से-कम दो साल तक सिर्फ इन तीन समस्याओं का समाधान खोजने पर ही अपने को केंद्रित करना चाहिए। मेरा मानना है कि पार्टियों को अपना वचन पत्र स्टाम्प पेपर पर नोटराइज्ड कराकर प्रस्तुत करना चाहिए। उसमें यह उल्लेख भी होना चाहिए कि वचन पत्र के कौन से वादे पहले साल में पूरे किए जाएंगे और कौन से दूसरे, तीसरे, चौथे तथा पांचवें साल में पूरे किए जाएंगे।
हर साल संसद में सरकार को एक दस्तावेज पत्र पटल पर पेश करना चाहिए। इस दस्तावेज पत्र में पूरे किए गए वादों की ताजा स्थिति की जानकारी दी जानी चाहिए। इस पर एक कानूनी बंदिश जरूरी होनी चाहिए कि यदि कोई सरकार अगर चुनावी वादे पूरे नहीं करती तो उसे अगले चुनाव में वचन पत्र में कोई नया बिंदु जोड़ने का अधिकार नहीं होगा। हालांकि देश के समसामयिक घटनाक्रम और अंतरराष्ट्रीय हालात के मद्देनजर तात्कालिक घटनाक्रम इसका अपवाद हो सकता है।
अचानक युद्ध या वैदेशिक तनाव की स्थिति में सरकार अपनी नीति निर्धारित कर सकती है, पर इन तीन मसलों को हर हाल में युद्ध स्तर पर हल करना जरूरी है। यकीनन यह सुनने या पढ़ने में आदर्श की बात लग सकती है, मगर यह पक्का है कि देश अब उस कगार पर जा पहुंचा है, जहां से बेहद खतरनाक चेतावनी मिल रही है। यह चेतावनी आंतरिक अशांति के चरम बिंदु की है।
यदि देश ने अभी ध्यान नहीं दिया तो सामाजिक बिखराव का अत्यंत क्रूर चेहरा देखने को मिल सकता है। इसलिए किसी भी दल की सरकार बने, उसे इन शिखर समस्याओं पर तुरंत गौर करना होगा। मुल्क के मतदाताओं को अच्छा लगेगा अगर निर्वाचित सरकार इसमें विपक्ष का रचनात्मक सहयोग ले। ध्यान दीजिए कि देश के लिए सरकार होती है, सरकार के लिए देश नहीं होता। भारत के लोगों ने गुलामी से मुक्ति पाने के बाद यदि लोकतंत्र का रास्ता अपनाया है तो उसके सरोकारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
एक मसला यह भी है कि कई पार्टियां अपने वचन पत्र में मुफ्त उपहार अथवा नगद बांटने के वादे भी करने लगी हैं. यह जम्हूरियत का स्याह चेहरा है। चुनाव के दरम्यान तो उपहार, शराब और नगदी काले धन से बांट दी जाती है लेकिन जीतने के बाद वचन पत्र में शामिल मुफ्त उपहार पार्टियों के जी का जंजाल बन जाते हैं। एक तो वैसे भी आजकल सरकारों की वित्तीय स्थिति लड़खड़ाई हुई है। ऊपर से मुफ्त का यह बोझ उन्हें कर्ज लेने के लिए बाध्य करता है. इस तरह विकास के काम हाशिये पर चले जाते हैं। मतदाता ठगा जाता है।