Telangana: 9 दिसंबर को हैदराबाद में कट्टरपंथी इस्लामिक राजनीति के लिए मशहूर अकबरुद्दीन ओवैसी विधानसभा के अंतरिम सभापति की शपथ लेने पूरी तैयारी से आये थे। वो सबकुछ इस्लामिक तरीके से करना चाहते थे, और किया भी। उन्होंने हैदराबादी मुसलमानों की शेरवानी और पाजामा पहन रखा था। प्रोटेम स्पीकर की शपथ भी तेलुगु स्टेट होने के बावजूद अरबी फारसी मिस्रित उर्दू में ली। उनकी शपथ का एक एक शब्द इतनी क्लिष्ट उर्दू में था कि उर्दूवुड के रूप में मशहूर बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर को भी समझ में न आये।
उन्होंने शुरुआत कुछ इस तरह की, “मैं अकबरुद्दीन ओवैसी जिसे खानूनसाज़ असेम्बली का रुखुन मुंतखिब किया गया है, अल्लाह के नाम से हलफ लेता हूं कि मैं खानून का रोजे राय दस्तूरे हिन्द का वफादार और फरमाबरदार रहूंगा। हिन्दुस्तान के इफ्तदार ए आला और इसकी सालिमियत को बरकरार रखूंगा…..।” मंत्री, स्पीकर या मुख्यमंत्री का निश्चित शपथपत्र होता है जिसे किसी भी भाषा में लिखा जाए उसमें कानून और गोपनीयता की ही शपथ दिलाई जाती है। अकबरुद्दीन ने भी यही किया सिवाय कानून को खानून कहने के क्योंकि हैदराबादी मुसलमान उर्दू बोलते समय क को ख ही बोलता है।
लेकिन अकबरुद्दीन के प्रोटेम स्पीकर पर हुए विवाद से पहले एक बात यह समझनेवाली है कि उन्होंने जब शपथपत्र के हर शब्द के लिए अरबी फारसी का शब्द चुना तो फिर असेम्बली को अंग्रेजी में असेम्बली ही क्यों कहा? वह इसलिए कि जिस अरबी कल्चर को उन्होंने अपनी शपथ में श्रेष्ठता के साथ प्रदर्शित किया उसमें उस असेम्बली के लिए कोई शब्द ही नहीं है जो लोकतंत्र से सजती है। इस्लाम में लोकतंत्र की कोई कल्पना नहीं है इसलिए अरबी में उससे जुड़ी शब्दावली का भी अभाव दिखता है। अधिक से अधिक सूरा शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसका भी अर्थ काउंसिल हो सकता है, असेम्बली या लोकतंत्रिक विधानसभा नहीं।
फिर भी अकबरुद्दीन हों या कुछ अन्य मुस्लिम नेता, वो अपने हाव भाव, आचरण और व्यवहार से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वो जिस अरबी भाषा और कल्चर को प्रदर्शित कर रहे हैं वह बहुत लोकतांत्रिक है। एक दशक पहले एक टपोरी गुण्डे मवाली की भाषा में ’15 मिनट के लिए पुलिस हटाकर 100 करोड़ हिन्दुओं के सफाये’ का दम भरनेवाले अकबरुद्दीन भी अगर आज विधानसभा के प्रोटेम स्पीकर बन जाते हैं तो यह अकबरुद्दीन की योग्यता नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है जो अपने संवैधानिक नियमों से बंधी हुई है।
अकबरुद्दीन वरिष्ठता के क्रम में इस समय तेलंगाना विधानसभा में सबसे वरिष्ठ विधायक बन गये हैं। उनसे वरिष्ठ एक विधायक और हैं कांग्रेस के उत्तम कुमार रेड्डी। नियमों के अनुसार वो प्रोटेम स्पीकर बन सकते थे लेकिन उन्होंने खुद ये जानकारी दी है कि क्योंकि वो मंत्री रह चुके हैं इसलिए प्रोटेम स्पीकर नहीं बन सकते। इसके बाद अकबरुद्दीन ओवैसी ही सबसे वरिष्ठ विधायक रह जाते हैं जिसकी वजह से उन्हें प्रोटेम स्पीकर की शपथ दिलाई गयी ताकि वो विधायकों को शपथ दिला सकें। हालांकि कांग्रेस की जीत पर अकबरुद्दीन ओवैसी का प्रोटेम स्पीकर बनना राजनीतिक मुद्दा बनना था, और वह बना भी। भाजपा ने अकबरुद्दीन के प्रोटेम स्पीकर बनने का विरोध किया और उनके विधायक टी राजा ने ऐलान किया कि भाजपा के निर्वाचित विधायक अकबरुद्दीन के कार्यकाल में सदस्यता ग्रहण नहीं करेगें। जब स्थायी सभापति की नियुक्ति हो जाएगी तब उसके बाद भाजपा विधायक विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करेंगे। भाजपा द्वारा अकबरुद्दीन का बहिष्कार अतार्किक भी नहीं है। स्वयं कांग्रेस भी ओवैसी परिवार की हितैषी हो, ऐसा भी नहीं है। इसी चुनाव में बीआरएस के पक्ष में मुसलमानों को लामबंद करने के लिए असदुद्दीन ओवैसी ने खुलकर कांग्रेस की आलोचना की और मुसलमानों से कांग्रेस को वोट न देने की अपील भी की। इसलिए कांग्रेस अगर नियमों से बंधे होने की बात कर रही है तो वह गलत नहीं है। जो नियम था उसके अनुसार अकबरुद्दीन ओवैसी ही सबसे वरिष्ठ विधायक थे इसलिए उन्हें प्रोटेम स्पीकर बना दिया गया। फिर भी अकबरुद्दीन ओवैसी का प्रोटेम स्पीकर बनना तो लोगों को अखर ही गया। जो व्यक्ति खुलेआम 100 करोड़ हिन्दुओं के सफाये की बात करता रहा हो, जिसकी राजनीतिक बुनियाद ही इस्लामिक सांप्रदायिकता पर टिकी हो, वह संवैधानिक पद पर बैठेगा तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। इसी चुनाव में वो उन पुलिसवालों को धमकियां दे चुके हैं जो समय पूरा हो जाने पर उनका लाउडस्पीकर बंद करवाने गये थे।
अकबरुद्दीन ओवैसी को राजनीति विरासत में मिली है। इनके पिता सलाहुद्दीन ओवैसी ने एआईएमआईएम की शुरुआत मुसलमानों की भलाई के लिए की थी क्योंकि उन्हें भारतीय लोकतंत्र पर “भरोसा” नहीं था कि सरकारें मुसलमानों का भला कर सकती हैं। अकबरुद्दीन भी लोकतंत्र में इसी इस्लामिक अविश्वास के साथ पले बढ़े हैं और हैदराबाद की कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर अपनी सियासत करते हैं। अब उनके भाई असदुद्दीन ओवैसी जब देशभर में अपनी पार्टी का विस्तार करने में लगे हैं तब भी उनका नजरिया वही है जिस नजरिये से उनके पिता ने पार्टी बनायी थी। वैसे भी अकबरुद्दीन तो अपनी बेलगाम जबान के लिए ही जाने जाते हैं जो सिर्फ ‘भड़काने और दंगा करवाने’ वाली भाषा में बात करता है। लेकिन लोकतंत्र तो संख्याबल का दूसरा नाम है। जिसके पास संख्याबल है वही विजेता है और कई बार संविधानेतर सत्ता भी। हम जिस लोकतांत्रिक रास्ते पर आगे बढ रहे हैं उसमें ऐसे अकबरुद्दीनों के लिए भी जगह है जिनकी खुद की आस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं है। लोकतंत्र बने रहने के लिए हमारे लिए यह जरूरी है और अकबरुद्दीन जैसे कौमी लीडर मजबूरी।