यह खबर सबको चौंकाने वाली लगी थी, जब संसद के विशेष सत्र के एलान के तुरंत बाद एक देश एक चुनाव पर ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार करने के लिए आठ सदस्यीय कमेटी की नियुक्ति की गई| ऐसा कोई उदाहरण पहले नहीं था, जब किसी पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में कोई कमेटी बनाई गई हो|
मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया। इसके दो कारण हैं, एक तो संविधानसभा की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डाक्टर आम्बेडकर की तरह रामनाथ कोविद भी दलित समुदाय से आते हैं। दूसरा वह डाक्टर आम्बेडकर की तरह ही कानूनविद हैं, पूर्व राज्यपाल और राष्ट्रपति रहे हैं| उनके समकक्ष कोई ऐसी शक्सियत नहीं थी, जिसे देश की दिशा बदलने वाले संविधान संशोधन का सुझाव देने वाली इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया जाता|
वैसे देखा जाए तो कमेटी के सदस्य हरीश साल्वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानूनविद हैं, संभवत सिफारिश का ड्राफ्ट बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी| कमेटी में बाकी तीन राजनीतिज्ञ और तीन अधिकारी हैं| राजनीतिज्ञों में गृहमंत्री अमित शाह, लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी और राज्यसभा में विपक्ष के नेता और पूर्व की कांग्रेस सरकारों में मंत्री रहे गुलाम नबी आज़ाद है| इनके अलावा क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल विशेष आमंत्रित हैं|
कांग्रेस अपना स्टैंड संसद की स्टैंडिंग कमेटी में साफ़ कर चुकी है कि वह एक देश एक चुनाव का विरोध करती है, क्योंकि यह देश के संघीय ढांचे और लोकतंत्र के खिलाफ है, इसलिए अधीर रंजन चौधरी ने खुद को कमेटी से अलग कर लिया है|
कांग्रेस ने गुलामनबी आज़ाद को कमेटी का सदस्य बनाए जाने पर भी एतराज किया है, क्योंकि गुलाम नबी आज़ाद ने राहुल गांधी के साथ मतभेदों के चलते पार्टी छोड़ दी थी, और उसके बाद राहुल गांधी पर लगातार प्रहार करते रहे हैं| कांग्रेस की आपत्ति यह भी थी कि कमेटी में राज्यसभा के विपक्ष के नेता को क्यों नहीं रखा गया, जबकि राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे खुद कानूनविद और कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं| इंडी एलायंस के बाकी दलों ने भी एक देश एक चुनाव को संघीय ढांचे और लोकतंत्र विरोधी बता कर खारिज किया है| संसद के विशेष सत्र के एजेंडे को लेकर वैसे तो बहुत अटकलें लगाई जा रही हैं, लेकिन जो मुद्दा सबको सामने दिखाई दे रहा है, वह एक देश एक चुनाव ही है| प्रधानमंत्री मोदी पिछले नौ साल में दर्जनों बार एक देश एक चुनाव की पैरवी कर चुके हैं, विपक्ष के विरोध के बावजूद संसद की स्टैंडिंग कमेटी भी इसकी सिफारिश कर चुकी है| खबर यह भी आई है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व राष्ट्रपति कोविंद को अनौपचारिक तौर पर ड्राफ्ट बनाने का काम जून में ही सौंप दिया था। कोविंद भी पिछले तीन महीनों में अनेक राज्यों का दौरा करके विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से विचार विमर्श करके उनका फीडबैक ले चुके थे। उन्होंने इस दौरान कम से कम दस राज्यपालों से भी विचार विमर्श किया था| यह काम वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने भी किया था। लेकिन वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि सभी दलों में सहमति के बिना एक देश एक चुनाव संभव नहीं है, क्योंकि कई तरह के संविधान संशोधन करने पड़ेंगे, जो बिना आम सहमति के नही हो सकते| हालांकि कमेटी की रिपोर्ट अभी तैयार नहीं हुई है, अभी पहली बैठक भी नहीं हुई है, लेकिन खबरें इस तरह की आई हैं कि कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल घटा कर और कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ा कर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए जाने का फार्मूला है| जिन विधानसभाओं का कार्यकाल घटाया जाए, उनके चुनाव 2024 में लोकसभा चुनावों के साथ हों, और जिनका कार्यकाल बढ़ाया जाए, उनके चुनाव 2029 के लोकसभा चुनावों के साथ हों| लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि किसी विधानसभा का कार्यकाल घटाना संघीय ढांचे पर सीधा प्रहार माना जाएगा और यह मामला सुप्रीमकोर्ट में भी जाएगा| बोम्मई केस पर सुप्रीमकोर्ट के फैसले से पहले केंद्र सरकार निरंकुश होती थी, वह किसी भी राज्य सरकार को बर्खास्त कर के विधानसभा भंग कर दिया करती थी, लेकिन बोम्मई फैसले के बाद केंद्र सरकार निरंकुश नहीं रही, उसे सुप्रीमकोर्ट की गाईड लाईन के मुताबिक़ ही काम करना होगा| जहां तक विधानसभाओं का कार्यकाल बढाने का सवाल है, तो उसके लिए भी संविधान का पालन करना जरूरी है| आपातकाल में जरुर किसी सदन का कार्यकाल एक साल तक बढ़ाया जा सकता है|
संविधान के अनुच्छेद 352 में आपातकाल का प्रावधान है। 352 (ख) के अनुसार केंद्र सरकार को राज्य में क़ानून और प्रशासन की समवर्ती शक्ति हासिल हो जाती है| इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में आपातकाल लगा कर लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया था| आपातकाल के दौरान कई संविधान संशोधन पास करवा लिए थे, जिनमें से एक संविधान संशोधन लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाने का भी था, जिसे 42वें संविधान संशोधन के रूप में याद किया जाता है| इस संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ा कर छह साल कर दिया गया था, इस तरह पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल सात साल हो गया था| यानि 1971 में चुनी गई लोकसभा का कार्यकाल 1978 तक हो गया था। यह अलग बात है कि इंदिरा गांधी ने पहली जनवरी 1978 को ही लोकसभा भंग कर दी थी| नई निर्वाचित सरकार ने 1978 में ही 44वां संविधान संशोधन करके 42वें संविधान संशोधन को निरस्त कर दिया था|
लेकिन अगर अब मोदी सरकार कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना चाहेगी, तो बिना आपातकाल लगाए, उसे संविधान में एक साल तक किसी विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने का अधिकार नहीं है। अब आपातकाल लगाना भी आसान नहीं है, क्योंकि 44वें संविधान संशोधन में आपातकाल लगाने की शर्ते भी कड़ी कर दी गई थीं| कागज पर एक राष्ट्र एक चुनाव योजना बनाना आसान है, लेकिन राजनीतिक टकराव के इस माहौल में प्रेक्टिकली लागू करना असंभव है| राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि जिन विधानसभाओं का कार्यकाल 2024 या 2025 मध्य तक खत्म हो रहा है, उन्हें समय से पहले भंग कर दिया जाएगा, इनमें महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड आ जाएंगी| लेकिन जिन राज्यों का 2021 में चुनाव हुआ, या 2022 में चुनाव हुआ, उनका क्या होगा| उनका कार्यकाल तीन साल कैसे बढ़ाया जाएगा| जैसे बंगाल, तमिलनाडू, केरल, असम और पुदुचेरी का चुनाव 2021 में हुआ था| उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर, गुजरात, हिमाचल के चुनाव 2022 में हुए| अगर एक देश एक चुनाव करवाना है तो इन विधानसभाओं का कार्यकाल क्या 2029 तक बढ़ाया जाएगा| संविधान के किसी भी प्रावधान के तहत यह संभव नहीं है|
इसी तरह कर्नाटक, नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय के चुनाव 2023 में हो चुके है| इसलिए न तो किसी विधानसभा का कार्यकाल घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है| भविष्य में एक फार्मूले पर सहमति हो सकती है, और वह इस फार्मूले पर कि पांच साल में अधिकतम दो बार ही चुनाव हों| जैसे अप्रेल 2024 और नवंबर दिसंबर 2026, इसी तरह 2029 और और दिसंबर 2031, लेकिन यह सहमति 2024 के चुनावों के बाद ही बन सकती है, अभी तो असंभव है|