जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा हो गई है. आने वाले समय में दो अन्य राज्यों में चुनाव होने हैं. इससे पहले मंडी से बीजेपी सांसद कंगना रनौत ने जातिगत गणना नहीं कराने को लेकर जो बयान दिया है, उससे बीजेपी बैकफुट और विपक्षी खेमा फ्रंटफुट पर है.
पिछले कुछ दिनों में अगर आप राहुल गांधी के बयानों पर गौर करेंगे तो हर बात, हर मुद्दे को वह कहीं ना कहीं दलित, आदिवासियों और पिछड़ों से जोड़ते नजर आ रहे हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों ने बीजेपी पर आरोप लगाया था कि संविधान बदल देंगे, आरक्षण नहीं देंगे, अब उस लड़ाई में एक नया आयाम जुड़ता दिखाई दे रहा है. कोई भी मुद्दा हो, कोई भी मंच हो राहुल गांधी जातिगत जनगणना की बात करते हुए नजर आते हैं.
हालांकि मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि प्रजातंत्र में सबसे बड़ा दोष है कि उसके योग्यता को मान्यता नहीं मिलती, सिर्फ लोकप्रियता को मिलती है. प्रजातंत्र में हाथ गिने जाते हैं सिर नहीं. आबादी के हिसाब से पिछड़ी जातियों के आरक्षण का सवाल जब पहले प्रधानमंत्री नेहरू के सामने आया तो उन्होंने भी परसाई वाली बात ही कहीं थी कि इससे योग्यता पीछे छूट जाएगी. फिर सामाजिक न्याय के नाम पर मंडल कमीशन बना और पिछड़ी जातियां को सरकारी नौकरी व हायर एजुकेशन में 27 फीसदी आरक्षण दे दिया गया. कायदे से 20 साल बाद इस आरक्षण की समीक्षा होनी थी, लेकिन मंडल-2 की तैयारी शुरू हो गई.
भारत में जाति सर्वेक्षण का इतिहास जटिल रहा है. स्वतंत्र भारत में 1951 से 2011 तक की प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर डेटा प्रकाशित किया गया था, लेकिन उससे पहले 1931 की प्रत्येक जनगणना में जाति आधारित डेटा था. हालांकि 1941 में जाति आधारित डेटा एकत्र किया गया था, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया था. इसके साथ ही 2011 में जब यूपीए सरकार थी और मनमोहन प्रधानमंत्री, तब सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित डेटा एकत्र किया गया था, लेकिन इसे कभी जारी नहीं किया गया. 15 साल में पहले राहुल गांधी का जाति की राजनीति पर एक अलग रुख था. उस समय वह व्यक्तिगत रूप से जाति-व्यवस्था में विश्वास नहीं करते थे.
आरक्षण के पक्ष में नहीं थे पंडित नेहरू
पंडित नेहरू ने 27 जून, 1961 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में उन्होंने पिछड़े समूहों को अच्छी और तकनीकी शिक्षा तक पहुंच प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था, न कि जाति और पंथ के आधार पर नौकरियों को आरक्षित करके. उन्होंने लिखा, ‘मैंने दक्षता और हमारे पारंपरिक ढर्रे से बाहर निकलने का उल्लेख किया है. इसके लिए हमें इस जाति या समूह को दिए जाने वाले आरक्षण और विशेष विशेषाधिकारों की पुरानी आदत से बाहर निकलना होगा. हाल ही में हमने राष्ट्रीय एकीकरण पर विचार करने के लिए जो बैठक की, जिसमें मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति थी, उसमें यह निर्धारित किया गया कि सहायता आर्थिक आधार पर दी जानी चाहिए न कि जाति के आधार पर.
राजीव गांधी ने भी किया था विरोध
लोकसभा में ‘मंडल आयोग की रिपोर्ट और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पर पर चर्चा के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के निर्णयों पर कड़ा रुख अपनाया था. उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि इस सदन में कोई भी यह कहेगा कि जब एक बच्चा पैदा होता है तो उसकी और दूसरे बच्चे की योग्यता में बहुत बड़ा अंतर होता है, वे सभी एक जैसे होते हैं. अंतर तब आता है, जब समान अवसर नहीं दिए जाते. पिछड़ेपन और गरीबी को दूर करने में पहली बात यह है कि समस्या की जड़ को देखें, समान अवसर दें.’
उन्होंने आगे कहा, चाहे वो बच्चा अनुसूचित जाति का हो या अनुसूचित जनजाति का हो या पिछड़ा हो या अगड़ा हो या किसी भी धर्म का अल्पसंख्यक समुदाय हो, गुण तो सभी में होते हैं, लेकिन उसको उन गुणों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता.’ छह दशक से अधिक समय बाद राहुल ने जाति जनगणना की बहस को फिर से हवा दी है. उनका कहना है कि यह हमारा राजनीतिक फैसला नहीं है, यह न्याय का फैसला है. यह भागीदारी का फैसला है. जातिगत जनगणना होगी और भारत के गरीबों को उनका हिस्सा मिलेगा और वह काम कांग्रेस करके दिखाएगी.
भारत में जनगणना का इतिहास
भारत के संदर्भ में अगर हम बात करें तो भारतीय इतिहास में समय-समय पर जनगणना कराई गई थी, इससे जुड़े साक्ष्य मिलते हैं. ऋग्वेद में 800 से 600 ईसा पूर्व के दौरान किसी प्रकार की जनसंख्या से जुड़ी हुई गणना की जान की बात आती है. इसमें जिससे पता चला है कि लगभग कितने लोग उसे क्षेत्र के आसपास रह रहे थे. इसके अलावा 321 से 296 ईसापूर्व के आसपास कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कराधान के लिए जनगणना पर जोर दिया गया है. उन्होंने कहा था कि अगर राज्य को अपनी नीतियां सही तरह से चलानी है तो पता होना चाहिए कि उसके पास कितनी प्रजा मौजूद है. इसी तरह मुगल काल में अकबर की प्रशासनिक रिपोर्ट ‘आइन-ए-अकबरी’ में जनसंख्या, उद्योग, धन और कई अन्य विशेषताओं से संबंधित कई सारे आंकड़े देखने को मिलते हैं.
अंग्रेजों ने 1843 में बनारस में जनगणना कराई और वह इस बात से हैरान रह गए कि यहां पर ब्राह्मणों की 107 जातियां थीं. आधुनिक भारत में स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद जनगणना हुई. आधुनिक भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान अलग-अलग समय पर जनगणना कराई जाती रही, ब्रिटिशर्स ने कभी इलाहाबाद में तो कभी बनारस में अलग-अलग समय पर जनगणना कराई. इसके बाद एक प्रमुख जनगणना 1872 में कराई गई. हालांकि इस दौर में देश के सभी हिस्सों को शामिल नहीं किया गया.
भारत में पहली बार विस्तृत जनगणना 1881 में आधिकारिक रूप से सामने आई. अंग्रेजों ने इसे एक बहुत बड़ी और महंगा बताते हुए इसका डेटा जारी नहीं किया, जिसका मतलब है कि हमारा अंतिम जातिगत गणना 1931 का है, जो लगभग 93 साल पहले किया गया.
क्या उस समय मिलता था आरक्षण?
उस समय कुछ स्थानों पर आरक्षण मौजूद था. मैसूर रियासत ऐसा करने वाली पहली रियासतों में से थी. 1921 में उन्होंने पिछड़े समुदायों के लिए सीटें आरक्षित की, मूल रूप से यह सरकारी नौकरियों और शिक्षा में कोटा था. जल्द ही मद्रास और बॉम्बे ने 1930 के दशक में इसका अनुसरण किया और यह सरकार तक विस्तारित हो गया.
जब गांधीजी को करना पड़ा आमरण अनशन
1932 में अंग्रेजों ने पिछड़े समुदायों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र प्रस्तावित किए थे, यह आरक्षित सीटों से अलग थे. आरक्षित सीटों पर हर कोई वोट करता है, इसके लिए एकमात्र शर्त यह थी कि उम्मीदवार पिछड़े समुदायों जैसे एससी या एसटी से होना चाहिए. जबकि अलग निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार और मतदाता दोनों पिछड़े समुदायों से होंगे. इस निर्णय ने दो विरोधी विचारधाराओं को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया. महात्मा गांधी इसके खिलाफ थे तो डॉ. बीआर आंबेडकर ने इसका समर्थन किया. आंबेडकर को मनाने के लिए गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. आखिरकार आंबेडकर ने नरमी दिखाई. आंबेडकर ने अलग निर्वाचन क्षेत्रों के बजाय आरक्षित सीटों पर सहमति जताई और यह स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहेगा ऐसा तय हुआ.
भारत के संविधान में सभी के लिए नहीं बल्कि दो हाशिए पर पड़े दो समूहों एससी और एसटी के लिए कोटा और आरक्षण की अनुमति है. इस आरक्षण को दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, एक राजनीति है जो अस्थायी है. दूसरा सामाजिक प्रकार है जो नौकरियों और कॉलेज की सीटों के लिए है. राजनीतिक आरक्षण का मतलब संसद और राज्य विधानसभाओं जैसे निर्वाचित निकायों में कोटा है. इसका 10 साल बाद पुनर्मूल्यांकन किया जाना था, लेकिन आजकल कोई मूल्यांकन नहीं है, केवल विस्तार होता रहा है.
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने में क्यों लगे 10 साल?
दूसरे प्रकार के कोटा के लिए कोई समय सीमा नहीं है. कई लोग कहते हैं कि बीआर आंबेडकर इसे अस्थायी बनाना चाहते थे, लेकिन संविधान में इसका उल्लेख नहीं है. किसी भी तरह से यह स्वतंत्रता के बाद की व्यवस्था थी और 1979 तक यही रही, तब एक नया आयोग गठित किया गया. इसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है और इसकी अध्यक्षता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल ने की थी. उन्होंने दिसंबर 1980 में रिपोर्ट तैयार करने में लगभग 2 साल का समय लिया था और इसमें कहा गया कि ओबीसी समुदाय को नौकरियों और कॉलेजों दोनों में 27 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए.
हालांकि इसे लागू नहीं किया गया, क्योंकि 1980 तक सरकार बदल चुकी थी और 10 साल तक किसी ने इस रिपोर्ट को किसी ने नहीं छुआ. अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल रिपोर्ट को लागू करने का फैसला किया. पूरे भारत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, सैकड़ों छात्र प्रमुख शहरों में सड़कों पर आ गए, उनमें से कई ने खुद को आग लगा ली, लेकिन सरकार ने ओबीसी के लिए 27 फीसदी कोटा लागू कर दिया. जिसके बाद भारत में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी और ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू हुआ, जोकि कुल मिलाकर 49.5 फीसदी हो गया.
जब सुप्रीम कोर्ट को करना पड़ा हस्तक्षेप
मंडल रिपोर्ट ने राजनीति के एक नए युग की शुरुआत की, लेकिन इससे एक समस्या पैदा हो गई. नेताओं ने सामाजिक न्याय की जगह नैरेटिव को हाईजैक कर लिया और आरक्षण राजनीतिक हथियार बन गया. यदि आप चाहते हैं कि एक खास समुदाय आपका समर्थन करे तो उन्हें कोटा दें. यह चलन बन गया और इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में हस्तक्षेप किया और ऐतिहासिक फैसला सुनाया. उन्होंने कहा कि कोटा 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता है.
क्या आरक्षण से OBC, ST, SC को मिला फायदा?
भारत में ओबीसी आरक्षण लागू हुए तीन दशक हो चुके हैं और एससी-एसटी आरक्षण को लागू हुए लगभग 8 दशक हो चुके हैं. बड़ा सवाल यह है कि क्या यह काम पूरा हुआ है और अगर नहीं हुआ तो हम कुछ और क्यों नहीं कर रहे हैं? 2021 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कुछ डेटा सौंपा था, उन्होंने 19 मंत्रालयों का सर्वेक्षण किया था और यह उनका निष्कर्ष था कि सरकारी नौकरियों में एससी 15%, एसटी 6% तथा ओबीसी 17.5% हैं. एससी की संख्या आरक्षण में मिले कोटे के बराबर है, लेकिन अन्य दो की नहीं. ओबीसी के लिए 27 फीसदी कोटा निर्धारित है, जबकि वह केवल 17.5% है जो कि बहुत बड़ा अंतर है. कोटा में अधिकांश कर्मचारी निम्न-स्तर के कर्मचारी हैं और 2012 में लगभग 40% सार्वजनिक सफाई कर्मचारी अनुसूचित जाति के थे.
इसके साथ ही कि ओबीसी में भी बड़ा हिस्सा ऐसी नौकरियों में कार्यरत है, जो कि ग्रेड तीन और चार के कर्मचारी हैं. पिछले 5 सालों (2018-2022) में आईएएस और आईपीएस के तौर पर देश में लगभग 4,300 नियुक्तियां की गई हैं, जिसमें ओबीसी, एससी और एसटीएस कुल 27 फीसदी है, लेकिन जनसंख्या में उनका हिस्सा 75% के करीब है. कॉलेजों में भी इन समुदायों के लिए आरक्षित 42% शिक्षक पद रिक्त पड़े हैं. इसलिए आरक्षण ने किसी अंतर को कम नहीं किया है.
आरक्षण ने पैदा की नई समस्या
इसने किसी तरह की समस्या का समाधान नहीं किया, बल्कि एक नई समस्या को जन्म दे दिया है, क्योंकि आजकल हर कोई आरक्षण चाहता है. पहले तो प्रमुख समुदायों ने आरक्षण के विचार को खारिज कर दिया था, लेकिन अब नई रणनीति यह है कि वे अपना खुद के लिए आरक्षण मांग रहे हैं और पूरे भारत में इसके उदाहरण हैं. गुजरात में पटेल समुदाय कोटा चाहता है, महाराष्ट्र में मराठा, कर्नाटक में लिंगायत, हरियाणा में जाट, ये सभी अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक रूप से शक्तिशाली समुदाय हैं, लेकिन अब वे आरक्षण चाहते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण पर कुछ दिलचस्प बातें कही थीं, जब उन्होंने कहा था कि आरक्षण पर 50% की सीमा लचीली है. एक न्यायाधीश ने कहा कि हमारी आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर हमें समग्र समाज के हित में आरक्षण प्रणाली पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. जबकि एक अन्य न्यायाधीश ने कहा कि आरक्षण कोई साध्य नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का एक साधन है. आरक्षण को निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए. दुर्भाग्य से यह एक राजनीतिक हथियार बन गया है. हालांकि ऐसा नहीं है कि आरक्षण ने भारत में मदद नहीं की. इसने सामाजिक न्याय में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन इसने मूल समस्या को हल नहीं किया है.
जाति जनगणना क्यों कराना चाहते हैं राहुल?
भले ही आजादी के बाद पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू आरक्षण के विरोध में थे और पूर्व गृह मंत्री सरदार पटेल भी इसके पक्ष में नहीं थे. इंदिरा गांधी के समय में भी कांग्रेस का नारा था कि ‘जात पर ना पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’. जबकि गांधी परिवार से प्रधानमंत्री बने तीसरे शख्स राजीव गांधी ने भी मंडल कमीशन का विरोध किया था, लेकिन आज राहुल गांधी हर मंच पर जातिगत जनगणना की बात करते हुए दिखाई देते हैं. कभी बसपा प्रमुख कांशीराम ने भी नारा दिया था कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी और इसके बाद मायावती भी इसी नारे के सहारे यूपी की सत्ता पर काबिज हुईं.
2024 के चुनावों में सपा-कांग्रेस गठबंधन ने भी कुछ इसी तरह के मंत्र को आगे बढ़ाते हुए बीजेपी को उत्तर प्रदेश में करारी चोट पहुंचाई है तो जाति जनगणना के पीछे भी यही विचार है. हम पहले से ही हर 10 साल में एससी/एसटी डेटा एकत्र करते हैं, लेकिन अब मांग उठ रही है कि ओबीसी डेटा भी एकत्र किया जाए. भारत में कोटा अभी भी क्यों मौजूद हैं और इसके दो कारण हैं, पहला तो निश्चित रूप से यह राजनीतिक फायदा पहुंचाता है और चुनाव जीतने में मदद के लिए हर राजनीतिक दल ने इनका इस्तेमाल किया है, जबकि दूसरा यह है कि सरकारें सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब देने में विफल रही हैं, अगर कोटा नहीं तो क्या? और उनके पास इसका कोई विकल्प नहीं है. इसलिए भारत इस अपूर्ण प्रणाली में फंसा हुआ है. यह वास्तव में विडंबना है कि हमारा लक्ष्य जातिविहीन समाज बनाना है, लेकिन फिर भी हमारी नीति जाति के आधार पर परिभाषित और आरक्षित करने की है.