लोकसभा चुनाव के परिणाम सबके सामने हैं और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की लगातार तीसरी बार सरकार बनने जा रही है. बीजेपी 303 सीटों से घटकर 240 सीट पर आ गई है तो कांग्रेस 52 से बढ़कर 99 सीटों पर पहुंच गई है.
सत्ता की हैट्रिक लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी को इस बार अपने सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ेगा. बीजेपी के विजय रथ को ब्रेक लगाने का काम यूपी में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने करके दिखाया, लेकिन आरजेडी के मुखिया लालू यादव और तेजस्वी यादव यह कारनामा नहीं कर सके. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि यूपी जैसा बिहार में इंडिया गठबंधन के नतीजे नहीं आ सके?
2024 के लोकसभा चुनाव में बने विपक्षी गठबंधन के सूत्रधार जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार रहे हैं. बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने का काम नीतीश कुमार ने किया था. पिछले साल जून में नीतीश की मेजबानी इंडिया गठबंधन की पटना में पहले बैठक हुई थी, लेकिन 2023 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश का मन बदल गया. नीतीश ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इंडिया गठबंधन का साथ छोड़कर एनडीए में वापसी की तो विपक्षी एकजुटता के बिखरने का खतरा मंडराने लगा था, क्योंकि जेडीयू ही नहीं आरएलडी और ममता बनर्जी तक अलग हो गई थीं. ऐसे में आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने मोर्चा संभाला था.
लालू ने विपक्षी दलों को साधकर रखा था
लालू प्रसाद यादव ने अखिलेश यादव से लेकर हेमंत सोरेन, शरद पवार, उद्धव ठाकरे और लेफ्ट दलों को साधकर रखने की कवायद करने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के साथ पूरी तरह से तालमेल को भी बनाए रखने का काम किया. इंडिया गठबंधन की होने वाली तमाम बैठकों में शिरकत करने और सीट शेयरिंग का फॉर्मूला निकालने तक में अहम रोल अदा किया. इस तरह इंडिया गठबंधन को एकजुट रखने का श्रेय लालू यादव को जाता है, लेकिन यूपी की तरह बिहार में एनडीए को सियासी मात ने देने के पीछे भी उनकी भूमिका रही है. लेकिन, बिहार के रण में अगर फेल रहे तो लालू यादव और तेजस्वी यादव की जोड़ी ने अखिलेश की तरह फॉर्मूला बना सके और न ही राहुल गांधी के ब्रांड को बिहार के चुनाव में भुना सके.
उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजे कैसे रहे?
उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से बीजेपी 2019 में जीती 62 सीटों से घटकर 33 पर आ गई और उसकी सहयोगी अपना दल (एस) दो से घटकर एक पर पहुंच गई. एनडीए का इस बार हिस्सा बनी आरएलडी दो सीटें जीती है. वहीं, सपा 2019 में जीती पांच सीटों से बढ़कर 37 पर पहुंच गई तो कांग्रेस 1 सीट से बढ़कर 6 पर पहुंच गई. इसके अलावा एक सीट अन्य को मिली है. इस तरह एनडीए को 28 सीटें को नुकसान हुआ है तो इंडिया गठबंधन को 43 सीटें मिली है, जो पिछले चुनाव से 37 सीटें ज्यादा है.
बिहार में कुल 40 सीटें है, 2019 में एनडीए 39 सीटें जीतने में कामयाब रही और एक सीट कांग्रेस को मिली थी. इस बार बिहार में एनडीए 30 सीटें जीतने में सफल रही है, जिसमें बीजेपी-जेडीयू 12-12 सीटें, एलजेपी (आर) 5 और एक सीट जीतन राम मांझी को मिली है. आरजेडी 4, कांग्रेस 3, लेफ्ट पार्टी को 2 सीटें मिली हैं और एक सीट पर निर्दलीय पप्पू यादव जीते हैं. बिहार में इंडिया गठबंधन ने एनडीए को 9 सीटों का झटका दिया जबकि यूपी में सपा-कांग्रेस ने 28 सीटें कम कर दी हैं, जिसके चलते ही बीजेपी बहुमत से दूर हो गई.
बिहार और यूपी के नतीजों में क्यों फर्क रहा?
सवाल यह उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि यूपी जैसे नतीजे इंडिया गठबंधन बिहार में नहीं ला सका. बिहार और यूपी के लोकसभा चुनाव का विश्लेषण करते हैं तो कई कारण है, जिसमें यूपी की तर्ज पर न ही कैंडिडेट का सिलेक्शन हो सका और नही गठबंधन में बेहतर तालमेल रहा. यूपी में अखिलेश ने काफी पहले समझ लिया था कि राहुल गांधी किस तरह उनके लिए सियासी मददगार साबित हो सकता है जबकि लालू-तेजस्वी इस बात को नहीं समझ सके. कांग्रेस के उम्मीदवारों का फैसला भी बिहार में लालू यादव ने किया और कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को भी प्रचार में नहीं बुलाया. तेजस्वी यादव सिर्फ मुकेश सहनी के साथ ही प्रचार करते नजर आए. लोकसभा चुनाव प्रचार में तेजस्वी के साथ राहुल गांधी सिर्फ एक बार ही दिखे जबकि यूपी में कई जनसभाएं अखिलेश-राहुल गांधी ने एक साथ किया.
सपा जैसा कारनामा नहीं कर पाए तेजस्वी
अखिलेश यादव ने इसे अच्छी तरह समझते हुए अपने मजबूत वोट बैंक में दूसरे जातियों के मत जोड़ने के लिए यूपी में ‘पीडीए’ रणनीति पर काम किया. गैर यादव पिछड़ी जातियों व दलित मतदाताओं को फोकस करते हुए, इस बार जो टिकट दिए उसका लाभ उन्हें चुनाव परिणाम में सर्वाधिक सीटें पाकर मिल गया है. सपा इस बार 62 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. सपा ने इस बार सर्वाधिक 17 टिकट दलितों को दिए. खास बात यह है कि मेरठ और फैजाबाद सामान्य सीट पर भी सपा ने दलित कार्ड खेला. सपा ने पिछड़ी जातियों में सबसे अधिक 10 टिकट कुर्मी व पटेल बिरादरी को दिए थे, जिसमें से सात सीटों पर जीत मिली.
सपा ने अपने मजबूत वोट बैंक ‘एमवाई’ के प्रत्याशियों में पांच यादव और चार मुस्लिम को टिकट दिए थे. यादव बिरादरी के टिकट अखिलेश ने अपने ही परिवार को दिए थे, इसमें सभी ने सफलता प्राप्त कर ली है. गैर यादव पिछड़ी जातियों में सपा ने निषाद और बिंद समाज के पांच प्रत्याशियों को भी टिकट दिया था और तीन मौर्य जीते हैं. दो जाट और ठाकुर सांसद सपा से बने हैं. राजभर और लोधी समाज के एक-एक प्रत्याशी को सपा ने लड़ाया, दोनों ने ही अपनी-अपनी सीटें जीत ली हैं. सपा ने दो ब्राह्मण व एक भूमिहार समाज के नेता को टिकट दिया था, इसमें से एक ब्राह्मण व एक भूमिहार जीतने में सफल रहे.
बिहार में इंडिया गठबंधन का फॉर्मूला फेल
बिहार में इंडिया गठबंधन का हिस्सा आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट पार्टियां और वीआईपी पार्टी रही. आरजेडी अपने कोटे की 23 सीटों में से सवर्ण 2, ओबीसी 13, अति पिछड़ा वर्ग के दो, दलित समुदाय के 4 और दो मुस्लिम प्रत्याशी दिए थे. आरजेडी के दो यादव और एक कुशवाहा जीतने में सफल रहे और एक ठाकुर लोकसभा के सांसद चुने गए हैं. यादव समुदाय के 7 उम्मीदवार आरजेडी ने उतारे थे, जिनमें दो लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती और रोहिणी आचार्य थी. 2024 में लालू प्रसाद के कुशवाहा कार्ड की खूब चर्चा रही, लेकिन 6 यादव उम्मीदवार के उतरना मंहगा पड़ गया. एनडीए ने सात सीटों पर कुशवाहा और एक पर कुर्मी जाति के नेता को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया था, जिनमें से एक कुशवाहा और दो यादव जीता.
राजनीतिक विश्लेषक की माने तो तेजस्वी यादव ने अकेले अपने दम पर एनडीए की नाक में नकेल कर दी, लेकिन कांग्रेस के साथ बैलेंस नहीं बना सके. पप्पू यादव की पुर्णिया सीट आरजेडी ने अपने पास ले ली ताकि वो चुनाव न लड़ सके. पप्पू यादव निर्दलीय चुनावी मैदान में उतर गए तो तेजस्वी यादव और आरजेडी नेताओं ने पूर्णिया में डेरा जमा दिया था ताकि पप्पू जीत न सके. इसके बाद भी पप्पू यादव जीतने में सफल रहे. इतना ही नहीं कांग्रेस कोटे के उम्मीदवारों के नाम भी तय करने का काम लालू प्रसाद यादव ने किया. कांग्रेस के युवा नेता कन्हैया कुमार को बिहार से चुनाव लड़ने नहीं दिया तो दिल्ली से उन्होंने किस्मत आजमाया.
तेजस्वी यादव ने ढाई सौ से अधिक सभाएं की
बिहार में इंडिया गठबंधन के चुनाव प्रचार की कमान तेजस्वी यादव खुद संभाल रहे थे. तेजस्वी ने ढाई सौ से अधिक सभाएं की, लेकिन उनके साथ कोई कांग्रेस नेता नजर नहीं आया, सिर्फ वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी के साथ ही प्रचार करते नजर आए थे. राहुल गांधी ने जिस तरह यूपी में अखिलेश यादव के साथ प्रचार करते हुए नजर आए, जिसमें राहुल कन्नौज में अखिलेश को जिताने के लिए रैली किया तो अखिलेश ने अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस के लिए रैली करके माहौल बनाने का काम किया. इसके अलावा कई अहम सीटों पर दोनों नेता एक साथ जनसभाएं की, जिसका सियासी लाभ दोनों को मिला.
राहुल के ब्रांड का लाभ आरजेडी नहीं उठा पाई
राहुल गांधी के यूपी में सियासी उतरने से मुस्लिम और दलित वोटों का झुकाव सपा की तरफ हुआ तो अखिलेश की वजह ये यादव और अन्य ओबीसी जातियां एक साथ दिखी. बिहार राहुल गांधी के ब्रांड को लाभ आरजेडी नहीं उठा सकी. तेजस्वी यादव अपने सिर्फ दम पर चुनावी नैया पार लगाने की कवायद में थे, जो सियासी तौर सफल नहीं रहा. आरजेडी का यादव समुदाय पर दांव खेलने से अन्य दूसरी ओबीसी जातियां इंडिया गठबंधन ने यूपी की तरह नहीं जुट सकी. नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ रहने से अति पिछड़ा वर्ग पूरी तरह एनडीए के पक्ष में लामबंद रहा, जिसे तेजस्वी और लालू नहीं हिला सके. इसीलिए चार सीटों पर ही आरजेडी सिमट गई और तीन सीट पर कांग्रेस. माले के दो सदस्य लोकसभा जा रहे हैं और यह बड़ी सफलता है जब वामपंथ पूरे देश में हाशिए पर चला गया है. ऐसे में यह बताता है कि बिहार में वामपंथ के लिए जमीन अभी भी बची हुई है.