पंजाब भारतीय जनता पार्टी का कभी भी गढ़ नहीं रहा है.
लोकसभा या विधानसभा में पार्टी की आंशिक सफलता भी लंबे समय तक उसकी सहयोगी पार्टी रही शिरोमणि अकाली दल के बलबूते ही रही.
अकालियों के साथ गठबंधन में बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रहा करती थी.
लेकिन किसानों के मुद्दे पर अकाली दल ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. नाता तोड़ने के बाद बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद भी पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. पिछले विधानसभा चुनाव में तो पार्टी को मात्र दो सीटें मिली थी.
एक बार ऐसा लगा था कि इस बार लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी और अकाली दल साथ आ सकते हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. लेकिन हाल के दिनों में हुई कुछ राजनीतिक घटनाओं ने ऐसी चर्चाओं को बल दिया है कि बीजेपी अब पंजाब को हल्के में नहीं ले रही है.
पंजाब में ‘ऑपरेशन लोटस’?
पिछले दिनों लुधियाना से कांग्रेस के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू बीजेपी में शामिल हो गए.
इतना ही नहीं, आम आदमी पार्टी के इकलौते सांसद सुशील कुमार रिंकू ने भी हाल ही में बीजेपी का दामन थाम लिया.
साथ ही जालंधर (पश्चिम) की आप विधायक शीतल अनगुरल भी उनके साथ बीजेपी में आ गईं.
ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि आने वाले समय में कई नेता पाला बदलकर बीजेपी में शामिल हो सकते हैं.
आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली सरकार में मंत्री सौरभ भारद्वाज ने बीजेपी पर पंजाब में ‘ऑपरेशन लोटस’ चलाने का आरोप लगाया है.
उन्होंने ये भी कहा है कि आप के विधायकों को धन के साथ लोकसभा चुनाव का टिकट दिए जाने और दूसरी तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं.
बीजेपी की आलोचना
सौरभ भारद्वाज ने सुशील कुमार रिंकू के बीजेपी में शामिल होने पर सवालिया निशान खड़ा करते हुए कहा, “विधानसभा चुनाव में बीजेपी आप, कांग्रेस और अकाली दल के बाद चौथे नंबर की पार्टी थी.”
“सवाल ये है कि रिंकू ने बीजेपी क्यों ज्वॉइन की. जबकि लोकसभा में उनका कार्यकाल समाप्त हो चुका है. इस चुनाव में भी जालंधर में बीजेपी चौथे नंबर पर होगी.”
सुशील कुमार रिंकू जालंधर संसदीय उपचुनाव के समय कांग्रेस छोड़कर आप में शामिल हुए थे.
वो सदन में बीजेपी की आलोचना भी करते रहे थे और उनके हंगामे की वजह से उन्हें सदन से सस्पेंड भी किया गया था.
हालाँकि कांग्रेस की तरफ़ से पहले भी कई नेता जैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाद उनकी पत्नी परनीत कौर, पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ बीजेपी के ख़ेमे में जाते रहे हैं.
बीजेपी की रणनीति क्या है?
सवाल ये है कि विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल को इन लोगों के पार्टी में शामिल होने से क्या हासिल होगा, जबकि पंजाब में बीजेपी की राजनीतिक ज़मीन बहुत छोटी है?
पूछा जा रहा है कि इस पूरे मामले में बीजेपी की रणनीति क्या है?
चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार इस पूरी प्रक्रिया को बीजेपी की राजनीतिक धरातल तैयार करने का रणनीति का हिस्सा बताते हैं, जिसका एक हिस्सा शायद लोकसभा चुनाव के समय में ही देखने में सामने आ जाए.
उनके मुताबिक़ दूसरा हिस्सा ‘लॉन्ग टर्म’ प्लानिंग से जुड़ा है.
समझा जाता है कि जो नए लोग कांग्रेस और आप छोड़कर बीजेपी में शामिल हो रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर को लोकसभा चुनाव के लिए टिकट मिलेगा.
मज़बूत राजनीतिक धरातल
साल 1996 से जब बीजेपी को अकाली दल का ‘बिना शर्त समर्थन’ हासिल हुआ, बीजेपी की राजनीतिक हैसियत पंजाब में जूनियर पार्टनर की रही है.
उसे संसदीय और विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन के भीतर कुछ सीटें ही मिलती रही थीं.
इस कारण बीजेपी अब तक एक मज़बूत राजनीतिक धरातल तैयार नहीं कर पाई है.
इस लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी और अकाली दल में किसी तरह का समझौता नहीं हो पाया है और दोनों दल अलग-अलग मैदान में उतर रहे हैं.
अकाली दल ने 2020 में हुए किसान आंदोलन के बीच अपने पुराने साथी से नाता तोड़ लिया था.
इस बार सभी संसदीय सीटों पर लड़ने के बाद बीजेपी इस बात का लेखा-जोखा कर सकती है कि 117 विधानसभा सीटों पर संघर्ष में उसकी स्थिति क्या बन सकती है.
हालाँकि विधानसभा चुनावों में अभी लंबा समय है.
बीजेपी में पूर्व कांग्रेसियों की भरमार
प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं कि ये एक तरह का रिक्रूटमेंट ड्राइव (भर्ती करने का अभियान) है.
उन्होंने कहा, “ये नरेंद्र मोदी की बीजेपी है, बड़े नेता को बेहतर रिज़ल्ट चाहिए, ध्येय एक ही है, कौन चुनाव जीत सकता है और रवनीत सिंह बिट्टू जैसे नेता को पकड़ने का लाभ ये होगा कि छुटभैये नेता ख़ुद ब ख़ुद खिंचे चले आएँगे.”
हालाँकि वो कहते हैं कि वर्तमान स्थिति में राज्य में कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है. लेकिन बीजेपी पूर्व कांग्रेसियों, ख़ासतौर पर रवनीत सिंह बिट्टू को अपने साथ लेकर मनौवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश तो कर ही सकती है.
रवनीत सिंह बिट्टू पूर्व कांग्रेसी नेता और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते हैं और तीन बार कांग्रेस पार्टी से सांसद रह चुके हैं.
राहुल गांधी के क़रीबी लोगों में समझे जानेवाले रवनीत सिंह बिट्टू पंजाब यूथ कांग्रेस के प्रमुख रह चुके हैं और उनका पार्टी छोड़ना कांग्रेस के लिए बड़ा राजनीतिक धक्का माना जा रहा है.
पंजाब बीजेपी में पूर्व कांग्रेसी
26 मार्च को बीजेपी में शामिल होने के बाद उन्होंने बयान दिया कि वो अपने संसदीय क्षेत्र का पूर्ण विकास चाहते हैं.
उन्होंने कहा, “लेकिन ये तभी संभव हो सकता है जब मैं सरकार में रहूँ. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने मुझे ये मौक़ा दिया है कि मैं अपने लोगों के विकास के लिए काम कर सकूँ.”
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में शोध करनेवाली संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेंट कम्यूनिकेशन के डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं कि इस समय पंजाब बीजेपी में पूर्व कांग्रेसी नेता प्रभावशाली दिखते हैं.
पंजाब बीजेपी अध्यक्ष सुनील जाखड़ ख़ुद बीजेपी में जाने से पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे.
राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष प्रताप सिंह बाजवा के भाई फतेह जंग बाजवा, पूर्व मंत्री राज कुमार वेर्का, राणा गुरमीत सिंह सोधी, केवल सिंह ढिल्लो और अन्य कई कांग्रेस नेता अब बीजेपी के साथ हैं.
हिंदू वोटर
बीजेपी की भविष्य की योजना पर प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं कि पंजाब में सिखों की तादाद सबसे अधिक है, लेकिन 38 प्रतिशत से अधिक आबादी हिंदुओं की है, जिनमें दलित और पिछड़ी जातियाँ भी हैं.
इन सबके बीच बीजेपी को उसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग तैयार करने का चांस दिखता है, जैसा उसने उत्तर प्रदेश में आजमाया है.
पंजाब की लुधियाना जैसी सीट पर हिंदू वोटरों की तादाद 65 फ़ीसदी से अधिक बताई जाती है. ये सीट कांग्रेस का गढ़ रही है.
विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी को लगता है कि राम मंदिर निर्माण और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा जैसे मुद्दों को लेकर हिंदू वोटरों का झुकाव उसकी तरफ़ हो सकता है.
बीजेपी नेता करतारपुर कॉरिडोर खोले जाने जैसी बातें याद दिलाकर सिखों को भी अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं.
अकाली दल से टकराव
साल 2018 में खोले गए इस कॉरिडोर के बाद सिख यात्री भारतीय पंजाब के गुरुदासपुर स्थित गुरुद्वारा बाबा नानक से लाहौर के नज़दीक मौजूद गुरुद्वारा दरबार साहिब तक वीज़ा के बिना जा सकते हैं.
बीजेपी ने हाल ही में अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत तरनजीत सिंह संधू को भी पार्टी में शामिल किया है.
तरनजीत सिंह सिंधू के दादा तेज़ा सिंह समुंदरी आज़ादी के पूर्व सिखों के बड़े नेता हुआ करते थे, जिन्होंने गुरुद्वारा मूवमेंट और श्री गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के कामों में अहम भूमिका निभाई थी.
पार्टी इन क़दमों के बलबूते ग्रामीण वोटरों को भी अपनी तरफ़ खींच सकने की उम्मीद कर रही है.
हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ पुराने सहयोगी अकाली दल से टकराव की स्थिति भी पैदा कर सकती है, जिसका मुख्य वोटर ग्रामीण इलाक़ों में है.
वैसे ये देखने की बात होगी कि क्या पंजाब का किसान फ़िलहाल पंजाब-हरियाणा सीमा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर जारी आंदोलन और उसमें बीजेपी की केंद्र और हरियाणा सरकार की भूमिका को वोट डालते समय याद रखता है या नहीं.
अकाली दल को फ़ायदा या नुकसान?
हालाँकि डॉक्टर प्रमोद कुमार का मानना है कि राज्य में जारी उथल पुथल का लाभ लंबे समय में अकाली दल को होगा, इसलिए पार्टी ने बीजेपी से गठबंधन को लेकर कुछ शर्तें रखी थीं जिसमें बंदी सिंह (वैसे सिख क़ैदी जो लंबे समय से जेलों में बंद हैं) की रिहाई का मामला उठाया था.
उनका कहना है कि उसे किसानों के बीच भी खोई ज़मीन हासिल करनी है जो तीन कृषि क़ानूनों और दूसरी वजहों से उससे खिसक गई है.
पिछले आम चुनाव में अकाली दल को दो सीटें मिली थीं. विधानसभा में उसे मात्र तीन सीटें मिलीं.
डॉक्टर कुमार कहते हैं कि अकाली दल अपने आपको पंजाब के ख़ालिस क्षेत्रीय दल के तौर पर फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.
बीजेपी और अकाली दल के अलग-अलग चुनाव लड़ने के निर्णय ने एक जून को पंजाब में होने वाले चुनावों को चार कोणीय बना दिया है.
पिछला विधानसभा चुनाव
पंजाब के चुनावों को लेकर कहा जाता है कि उसकी वोटिंग देश के दूसरे इलाक़ों से अलग हटकर होती है.
नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद भी पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी थी और पिछला विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी ने जीता.
आम चुनावों में उसकी सीटें पिछले दो आम चुनावों में दो पर ही सीमित रहीं.
दूसरी ओर कांग्रेस के ख़ेमे में आपसी कलह कम होने का नाम नहीं ले रहा है.
माना जा रहा है कि आप को लेकर वोटरों में पहले जैसा उत्साह नहीं दिख रहा है.
डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं कि आप ने जनहित के काम जैसे बिजली-पानी को लेकर वायदे किए थे और दूसरे दलों को भ्रष्ट बताया था, ये निगेटिव पब्लिसिटी उसके काम आ गई, लेकिन अब दूसरे दल उससे अधिक देने का वायदा कर सकते हैं और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर पार्टी ख़ुद खरी नहीं उतर पाई है.