जिस बात की पहले से ही आशंका व्यक्त की जा रही थी वही हो रहा है।
संसद के दोनों सदनों में नियम 267 बनाम 176 को लेकर गतिरोध बना हुआ है। मणिपुर मुद्दे पर हंगामे के साथ शुरु हुए संसद की मानसून सत्र में अब तक की स्थिति ऐसी रही है कि सरकार विपक्ष को सुनने के लिए धैर्यशील नहीं थी तो विपक्ष अपनी हठधर्मिता से बाज आने को तैयार नहीं था। ऐसे में मानसून सत्र का एक लंबा समय बर्बाद चला गया। इस मानसून सत्र के दौरान महत्त्व के कुल 32 विधेयकों पर चर्चा प्रस्तावित है। लेकिन संसद के बेशकीमती समय की परवाह पक्ष या प्रतिपक्ष किसी को नहीं है।
संसद की कार्यवाही का मिनट दर मिनट खर्च करदाताओं यानी देश की जनता के जेब से जाता है। लेकिन देखने में यह आ रहा है कि संसदीय कार्यवाही की उत्पादकता दर लगातार घटती जा रही है। 1978 से लेकर 1989 के दौरान इसकी उत्पादकता 135% तक थी जो 1990 से 2004 के दौरान घटकर 90% और 2004 से 2014 तक यूपीए के शासन में और नीचे गिरकर 87% पर आ गई थी। 2014 के बाद संसद की औसत सालाना उत्पादकता दर 63% पर आ गई है। भारतीय प्रशासन में संविधान सर्वोपरि है, पर राज्य का हर अंग किसी न किसी रूप में जनता के प्रति जवाबदेह है। चुनकर आए प्रतिनिधियों की कड़ी में सांसद सबसे ऊपर होते हैं। संसद अपनी प्रक्रियाओं को खुद रेगुलेट करती है और उसकी कार्यवाही की व्यवस्था को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन इन सबके लिए संसद का चलना सबसे अहम है। मालूम हो कि 14वीं और 15वीं लोकसभा में ज्वलंत विषयों पर 113 अल्पकालिक चर्चाएं हुई थी लेकिन 16वीं और 17वीं लोकसभा के दौरान इसकी संख्या घटकर 42 पर आ गई।
इसी तरह 14वीं और 15वीं लोकसभा में 152 ध्यानाकर्षण प्रस्ताव को अनुमति मिली थी लेकिन बाद के सत्रों में इसकी संख्या घटकर बहुत कम हो गई। वर्ष 2020 में कोरोना के कारण संसद महज 33 दिन चली थी। 2021 में 58 दिन और 2022 में 56 दिन चली। संसद का कार्य व्यापार लगातार सिकुड़ता गया, सारी बहसें टीवी स्क्रीन पर होने लगी। संसदीय इतिहास में सबसे बेहतरीन कामकाज 1952 से 1957 के बीच हुआ जब 677 बैठकों में 319 विधेयक पारित किए गए। संसद में मौजूदा गतिरोध मणिपुर की घटना पर चर्चा को लेकर है। सरकार चर्चा कराने के लिए तैयार है। केंद्रीय गृह मंत्री ने चर्चा करने के लिए विपक्षी दल के नेताओं को पत्र लिखकर चर्चा में शामिल होने की अपील भी की। सत्ता पक्ष के सांसदों ने नियम 176 के तहत मणिपुर पर चर्चा की मांग राज्यसभा में की है जबकि विपक्षी दल नियम 267 के तहत चर्चा की लगातार नोटिस दे रहे हैं। नियम 267 में लंबी चर्चा के साथ मतदान का प्रावधान है, जबकि 176 के तहत अल्पकालिक चर्चा होती है। कोई पक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं है।
आम आदमी पार्टी के सांसद सदन की कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करने के कारण पूरे सत्र के लिए निलंबित किए जा चुके हैं। लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान के जानकार पीडीटी आचारी का कहना है कि ‘संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष से संवाद और संसद के प्रति संवैधानिक और नैतिक उत्तरदायित्व सर्वोपरि होता है।’ सुभाष कश्यप ने भी एक खास मौके पर अपनी टिप्पणी में संसद में विरोध के स्वर को गंभीरता से लेने की बात कही थी। भारत के संसदीय इतिहास में विरोध का स्वर प्रारंभ से ही महत्व के साथ रेखांकित किया जाता रहा है।
1952 में संसद की पहली बैठक में ही हंगामा हुआ था।
सत्ता में आते ही नेहरू सरकार निरोधात्मक कानून ले आई थी। यह वही कानून था जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने राष्ट्रवादियों के विरुद्ध प्रयोग किया था। प्रथम सदन में मुख्य विपक्षी कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सदस्य थे जो आजादी के पूर्व और बाद में भी जेल जाते रहे थे। उन्होंने इस ब्रिटिश काले कानून का भारतीय गणराज्य में भारी विरोध किया था। विरोध के आगे झुकते हुए सरकार को निरोधात्मक कानून को बदलना पड़ा था। वर्ष 1973 में पेट्रोल डीजल के दामों में बढ़ोतरी के खिलाफ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बैलगाड़ी लेकर संसद भवन के उस हिस्से तक पहुंच गए थे जहां लोकसभा अध्यक्ष का दफ्तर है। संसद में धरने की सबसे अधिक यादगार घटना राजनारायण की है जिन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनाव में गड़बड़ी का केस दायर किया था और जिसमें वे जीत भी गए थे। 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में भी राज नारायण ने इंदिरा गांधी को शिकस्त दी थी। वे सभापति के आसन के सामने धरने पर बैठ जाते थे, उन्हें कभी सदन से निलंबित नहीं किया गया।
वर्ष 1978 में प्याज के दाम में हुई बढ़ोतरी के खिलाफ लोक दल के सांसद रामेश्वर सिंह ने प्याज की माला पहन कर तथा सिर पर प्याज की गठरी लेकर सदन में दाखिल होकर विरोध प्रदर्शन किया था। इसी तरह धरना प्रदर्शन के कारण सितंबर 2012 में 20 दिनों का मानसून सत्र 13 दिनों तक ठप रहा। उस सत्र के लिए कुल 30 दिन प्रस्तावित थे, लेकिन विरोध के कारण काम नहीं हो सका। 2021 का मानसून सत्र पेगासस पर विरोध के कारण बाधित हुआ और परिणाम स्वरूप करदाताओं के 133 करोड़ रुपए बर्बाद हो गए। वर्ष 2022 का मानसून सत्र भी हंगामे के साथ ही शुरू हुआ था। विपक्ष की ओर से मूल्य वृद्धि और जीएसटी की दरों में बढ़ोतरी को मुद्दा बनाया गया जबकि सरकारी पक्ष ने नेशनल हेराल्ड मनी लांड्रिंग मामले में सोनिया गांधी से पूछताछ को लेकर विपक्ष को घेरने की कोशिश की थी। एक वर्ष में संसद का सत्र लगभग 100 दिनों तक चलता है और प्रतिदिन संसद के दोनों सदनों में लगभग 6 घंटे काम होता है।
संसदीय आंकड़ों से पता चलता है कि दिसंबर 2016 के शीतकालीन सत्र के दौरान लगभग 92 घंटे व्यवधान की भेंट चढ़ गए। इस दौरान लगभग 144 करोड रुपए जिसमें 138 करोड रुपए संसद चलने का खर्च तथा 6 करोड़ रुपए सांसदों के वेतन भत्ते एवं आवास का नुकसान हुआ। सांसदों को विशेषाधिकार प्राप्त है। इनका संसदीय व्यवहार ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई, की उक्ति को चरितार्थ करता है। पगार बढ़ाने की मांग इनकी ओर से लगातार हो रही है लेकिन संसदीय कार्यवाही के प्रति वैसी गंभीरता नहीं दिखाई देती। जनता की गाढ़ी कमाई को जाया करने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। हाल के कुछ वर्षों में संसद के अधिकांश सत्र ऐसे चले हैं जिनमें शुरू में हंगामा होता है फिर गतिरोध बना रहता है बाकी के बचे कुछ दिनों में अधिकांश बिल बिना बहस सत्ताधारी पक्ष पास कराने में सफल हो जाता है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि जो विधेयक बिना चर्चा के कानून की शक्ल ले रहे हैं क्या वे कानून जन भावना से न्याय करने वाले होंगे?