Samvidhan par Rajneeti: अपनी चुनावी व्यस्तता के बीच 11 मई को राहुल गांधी एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान पहुंचे। सम्मेलन था संविधान की रक्षा। इसका आयोजन विभिन्न संगठनों ने किया था लेकिन राहुल गांधी को वक्ता के तौर पर संभवत: इसलिए बुलाया गया क्योंकि वो बार बार बीजेपी और मोदी पर सवाल उठा रहे हैं कि अगर तीसरी बार वो सरकार में आये तो संविधान बदल देंगे।
संविधान बदल देने से उनका ठीक ठीक आशय क्या है यह तो वही जानें लेकिन भारतीय राजनेताओं के संवैधानिक, लोकतांत्रिक संस्थानों और मूल्यों के प्रति सम्मान के बारे में कोई पहली बार बहस नहीं उठी है। संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों के प्रति सम्मान की कमी के आरोप सभी दलों और प्रधानमंत्रियों पर लगते रहे हैं।
इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, कुछ मुख्यमंत्रियों को भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजने, ओबीसी की बहालियों में रुकावट पैदा करने और राजनीतिक दुश्मनी के नाम पर विपक्ष इस चुनाव में जोरदार तरीके से यह प्रचार कर रहा है कि पीएम मोदी संविधान विरोधी हैं। जबकि सत्ता में रहने के दौरान इन्हीं लोगों ने संविधान की भावनाओं के खिलाफ काम किया था। यह जानना बहुत ही दिलचस्प है कि 26 नवंबर 1949 को संविधान लागू होने के एक वर्ष के भीतर ही तमिलनाडु के एक वकील की सलाह पर, संविधान में पहला संशोधन लाया गया। इसमें नेहरू सरकार ने 9वीं अनुसूची में डाले गए कानूनों के खिलाफ कार्रवाई करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। साथ ही राज्यों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने का भी अधिकार दे दिया गया। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के तीन और आधार जोड़े गए, जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध और किसी अपराध के लिए उकसाना। बाद में इन कानूनों का खूब दुरुपयोग हुआ। वरिष्ठ पत्रकार और संविधान के अध्ययनकर्ता राम बहादुर राय कहते हैं कि संविधान का मखौल उड़ाने की शुरुआत ही नेहरू ने की। उन्होंने पहले संविधान संशोधन के लिए कूट चाल चली और बिना अपने सहयोगियों को विश्वास में लिए तब के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पर दवाब डालकर हस्ताक्षर करवा लिया। याद किया जाना चाहिए कि 2013 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश को मंजूरी देकर सजायाफ्ता सांसदों को जीवनदान देने की कोशिश की थी। यह अध्यादेश 10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी एक फैसले को निरस्त करने के लिए लाया गया था। अध्यादेश में यह प्रावधान किया गया था कि यदि कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि अदालत द्वारा अयोग्य ठहराया जाता है तो भी आदेश तीन महीने तक लागू नहीं होगा और यदि इस अवधि के दौरान कोई अपील की जाती है, तो अपील का निपटारा होने तक अयोग्यता पर रोक लगी रहेगी। बाद में राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से उस अध्यादेश को फाड़ कर कूड़े में फेंक दिया था। उस पर एक प्रधानमंत्री की गरिमा को तार तार करने की आलोचना भी हुईं थी। दोष भारतीय लोकतंत्र में नहीं, बल्कि इसको अपने तरीके से चलाने वाले लोगों की है। संविधान में दी गई लोकतांत्रिक प्रथाओं में आम नागरिक को अपनी पसंद के उम्मीदवार चुनने का अधिकार है, लेकिन उमीदवार के चयन में विवेक तो पार्टियों या मतदाताओं का होता है। उसकी कमी के लिए संविधान को दोषी तो नहीं ठहराया जा सकता। प्रसिद्ध लेखक डॉ बालाजी विश्वनाथन अपने अध्ययन के आधार पर यह दावा करते हैं कि जवाहर लाल नेहरू ने संविधान के मसौदे तैयार करने में काफी दखल दिया था। कश्मीर के मामले में भी संविधान में अलग प्रावधान डलवाने के लिए नेहरू ने ही शेख अब्दुल्ला को डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के पास भेजा था। तब डॉ. अम्बेडकर ने एक दम अस्वीकार करते हुए कहा था – “अब्दुल्ला, आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, भारत कश्मीर का विकास करे और कश्मीरियों को भारत के नागरिकों के समान अधिकार मिले, लेकिन आप नहीं चाहते कि भारत और भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में कोई अधिकार मिले। मैं भारत का कानून मंत्री हूं। मैं अपने देश के हित के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता।” लेकिन नेहरू तब भी नहीं माने और उन्होंने गोपालस्वामी अय्यंगर से मसौदा तैयार करवाया और उसे पारित करने के लिए संसद में अपने पूर्ण बहुमत का इस्तेमाल किया। इसी तरह नेहरू ने पूरी संसद को अंधेरे में रखकर 14 मई 1954 को एक नया प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35A के रूप में कश्मीर में लागू कर दिया। 1970 का दशक भारत के लोकतंत्र और संविधान के सबसे बुरा समय था। भारत में यह काल इंदिरा गांधी की सत्ता का था। रामबहादुर राय कहते हैं कि अपनी राजनीतिक स्थिति कमजोर होती देख इंदिरा गांधी ने संविधान को अपने हिसाब से तोड़ना मरोड़ना शुरू कर दिया। वे कई संशोधन लेकर आईं। जिससे भारतीय लोकतंत्र की नींव को खतरा उत्पन्न हो गया। उन्होंने 1971 में संविधान के 24वें संशोधन द्वारा आम नागरिक के मौलिक अधिकारों को कमजोर किया। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतिक्रिया में था जिसमें कहा गया था कि संविधान में निहित मौलिक अधिकारों में बदलाव नहीं किया जा सकता है। फिर 1972 के 25वें संशोधन के जरिए निजी संपत्ति के अधिकार को निलंबित कर दिया गया। सरकार को किसी की भी संपत्ति अपने कब्जे में लेने का अधिकार मिल गया।
इंदिरा गांधी को इतने से भी संतोष नहीं हुआ और 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इंदिरा गांधी के चुनाव को धोखाधड़ीपूर्ण घोषित किया और चुनाव को रद्द कर दिया तब इंदिरा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र को ही निलंबित कर दिया। 1975 के 39वें संशोधन के जरिए भारतीय प्रधानमंत्री को अदालतों के आदेश को ना मानने का अधिकार अपने पास कर लिया और आखिरकर संविधान के सबसे दुर्लभ प्रावधान (अनुच्छेद 352) का इस्तेमाल कर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। नागरिक अधिकार, संसद और चुनाव सब निलंबित कर दिये गये।
मोदी सरकार पर भी सुप्रीम कोर्ट, राज्य सरकारों, ईसी, आरबीआई, एलआईसी, न्यूट्रल मीडिया और स्वायत इकाइयों की स्वतंत्र कार्यप्रणाली का गला घोंटने का आरोप लगाया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि कुछ कानूनों का इस्तेमाल सिर्फ उन सभी लोगों के खिलाफ ही किया जा रहा है, जो बीजेपी का विरोध करते हैं। ये आरोप चुनावी भी हो सकते हैं। लेकिन यह दायित्व सत्ता पक्ष का ही है कि जनता को आश्वस्त करे कि उसके समय में लोकतंत्र और संविधान की मर्यादा बनी रहेगी। केवल शब्दों से नहीं, अपने आचरण से भी।