‘शहीदों के चिताओं पर हर वर्ष लगेंगे मेले, वतन पर मिटने वालों का यहीं बाकी निशां होगा।’ इन पंक्तियों को पूरी तरह से सच साबित करता है बावनी इमली स्मारक। यहां देश को अंग्रेजों की क्रुरता भरी पराधिनता से आजाद करवाने का सपना लिए 52 स्वतंत्रता सेनानी ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में स्थित स्मारक में मौजूद बुढ़ा इमली का पेड़, जो इन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों का साक्षी रहा है, वह आज भी इसकी कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को सुनाता आ रहा है। यह जगह और इमली का वह बुढ़ा पेड़ निश्चित रूप से देशवासियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।
बावनी इमली स्मारक का इतिहास उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में मौजूद बावनी इमली स्मारक में इमली का एक पुराना वृक्ष है। 1857 में सिपाही विद्रोह से ठीक पहले जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की आग सुगल रही थी, उसी समय अंग्रेज अफसरों ने 52 स्वतंत्रता सेनानियों को इसी इमली के पेड़ से लटकाकर मार डाल था। शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके 51 साथियों ने अंग्रेजों की नाम में दम कर रखा था।
इन लोगों ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फुंक दिया था। ये लोग गुरिल्ला युद्ध में माहिर हुआ करते थे। बिंदकी के अटैया रसूलपुर (वर्तमान पधारा) गांव के ठाकुर जोधा सिंह अटैया छापामार युद्ध में पारंगत थे। उन्होंने अंग्रेजों को काफी परेशान किया था। इमली के इस वृक्ष से लटकाकर ही ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके अज्ञात 51 साथियों को मार डाला गया था।
अंग्रेज दारोगा और सिपाही को जिंदा जलाया ठाकुर जोधा सिंह अवध और बुंदेलखंड के क्रांतिकारियों के संपर्क में आए थे। उन्बोंने महमूदपुर गांव में रुककर एक अंग्रेज दारोगा और सिपाही को जलाकर मार दिया था। रानीपुर गांव की पुलिस चौकी पर भी उन्होंने हमला किया था और घोड़ों को हांककर ले गये थे। उन्हें जब पता चला कि वीर योद्धा ठाकुर दरियाव सिंह को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया है तो वह अपने 51 साथियों के साथ निकल पड़े।
तभी कर्नल क्रस्टाइल की घुड़सवार सेना ने इन 52 क्रांतिकारियों को 28 अप्रैल 1858 को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद अंग्रेजी सेना ने पारादान में स्थित इस इमली के पेड़ पर उन सभी 52 लोगों को फांसी से लटका दिया। उसके बाद से ही इस जगह को बावनी इमली का पेड़ कहा जाने लगा। कई दिनों तक पेड़ से ही लटकता रहा शव उस वक्त अंग्रेजों का खौफ इतना ज्यादा था कि इन क्रांतिकारियों के पार्थिव शरीर को पेड़ से उतारने की हिम्मत कोई नहीं कर सका था। सभी शव कई सप्ताहों तक पेड़ से झुलते रहे। अंग्रेजों ने मुनादी करवा दी थी कि जो इन शवों को उतारेगा, उसे भी ठीक इसी तरह मार डाला जाएगा। चील-कौए इन शवों को नोच-नोचकर खाते थे। आखिरकार 3/4 जून 1858 की रात को रामपुर पाहुर के निवासी ठाकुर महाराज सिंह ने बुरी तरह से सड़ चुके इन शवों को पेड़ से नीचे उतारा और शिवराजपुर गंगा घाट पर सभी 52 क्रांतिकारियों का अंतिम संस्कार किया।
उसके बाद से ही इस जगह को स्वतंत्रता संग्राम के तीर्थ स्थल के रूप में माना जाता है। शहीद दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्वों के मौके पर स्थानीय लोग यहां पुष्पांजलि अर्पित करने पहुंचते हैं।
जिस पेड़ से लटका कर इन क्रांतिकारियों का नरसंहार किया गया था, वह पेड़ आज भी मौजूद है। यह संभवतः स्वतंत्रता संग्राम में एकलौती ऐसी घटना रही होगी जब 52 लोगों एक साथ सामुहिक रूप से फांसी से लटका दिया गया हो। ग्रामिणों का कहना है कि इस नरसंहार के बाद इमली के उस पेड़ का विकास भी रुक गया था। जोधा सिंह अटैया के वंशज आज भी पधारा रसूलपुर गांव में रहती हैं।